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लंका काण्ड दोहा 73

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चौपाई :सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥डारइ परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥1॥ भावार्थ:- वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शास्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि

लंका काण्ड दोहा 72

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चौपाई :दिन के अंत फिरीं द्वौ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा॥1॥ भावार्थ:- दिन का अन्त होने पर दोनों सेनाएँ लौट पड़ीं। (आज के युद्ध में) योद्धाओं को बड़ी थकावट हुई, परन्तु श्री राम

लंका काण्ड दोहा 71

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चौपाई :सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासुन तान्यो॥बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥1॥ भावार्थ:- करुणानिधान भगवान्‌ ने देवताओं को भयभीत जाना। तब उन्होंने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों

लंका काण्ड दोहा 70

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चौपाई :भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥1॥ भावार्थ:- यह देखकर रीछ-वानरों के झुंड ऐसे भागे जैसे भेड़िये को देखकर भेड़ों के झुंड! (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वानर-भालू व्

लंका काण्ड दोहा 69

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चौपाई :कुंभकरन मन दीख बिचारी। हति छन माझ निसाचर धारी॥भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥1॥ भावार्थ:- कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्री रामजी ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला। तब वह महाबली वीर

लंका काण्ड दोहा 68

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चौपाई :कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टंकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥1॥ भावार्थ:- हाथ में शार्गंधनुष और कमर में तरकस सजाकर श्री रघुनाथजी शत्रु सेना को दलन करने चले। प्रभु ने पहले तो ध

लंका काण्ड दोहा 67

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चौपाई :कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई॥1॥ भावार्थ:- रण के उत्साह में कुंभकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो। वह करोड़-

लंका काण्ड दोहा 66

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चौपाई :उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला॥भृकुटि भंग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो।