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लंका काण्ड दोहा 57

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चौपाई :अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया॥मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥1॥ भावार्थ:- वह मन ही मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची। तालाब, मंदिर और सुंदर बाग बनाया। हनुमान्‌जी ने सुंदर 

लंका काण्ड दोहा 56

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चौपाई :राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभंजनसुत बल भाषी॥उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावनु कालनेमि गृह आवा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी अपना बल बखानकर (अर्थात्‌ मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) च

लंका काण्ड दोहा 55

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चौपाई :सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥सक संग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरंत ही जला डाल

लंका काण्ड दोहा 54

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चौपाई :घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥1॥ भावार्थ:- घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलास के पेड़। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध करके 

लंका काण्ड दोहा 53

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चौपाई :छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥1॥ भावार्थ:- उनके लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लि

लंका काण्ड दोहा 52

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चौपाई : :नभ चढ़ि बरष बिपुल अंगारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥1॥ भावार्थ:- आकाश में (ऊँचे) चढ़कर वह बहुत से अंगारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रका

लंका काण्ड दोहा 51

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चौपाई :देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवंत जनु धायउ काला॥महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा॥1॥ भावार्थ:- सारी सेना को बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान्‌ क्रोध करके ऐसे दौड़े मानो स्वयं काल दौड़ आता हो। उन्होंने तुरं

लंका काण्ड दोहा 50

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चौपाई :कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोत बिख्याता॥कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद हनूमंत बल सींवा॥1॥ भावार्थ:- (मेघनाद ने पुकारकर कहा-) समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव