लंका काण्ड दोहा 74
चौपाई :
चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥1॥
भावार्थ:- हे भवानी! श्री रामजी की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया जा सकता। ऐसा विचार कर जो तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुष हैं, वे सब तर्क (शंका) छोड़कर श्री रामजी का भजन ही करते हैं॥।1॥
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥
जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा॥2॥
भावार्थ:- मेघनाद ने सेना को व्याकुल कर दिया। फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा। इस पर जाम्बवान् ने कहा- अरे दुष्ट! खड़ा रह। यह सुनकर उसे बड़ा क्रोध बढ़ा॥2॥
बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवंत कर गहि सोइ धायो॥3॥
भावार्थ:- अरे मूर्ख! मैंने बूढ़ा जानकर तुझको छोड़ दिया था। अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है? ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया। जाम्बवान् उसी त्रिशूल को हाथ से पकड़कर दौड़ा॥3॥
मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायो। महि पछारि निज बल देखरायो॥4॥
भावार्थ:- और उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा। वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। जाम्बवान् ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल दिखलाया॥4॥
बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लंका पर डारा॥
इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥5॥
भावार्थ:- (किन्तु) वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता। तब जाम्बवान् ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका पर फेंक दिया। इधर देवर्षि नारदजी ने गरुड़ को भेजा। वे तुरंत ही श्री रामजी के पास आ पहुँचे॥5॥
दोहा :
खगपति सब धरि खाए माया नाग बरुथ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ॥74 क॥
भावार्थ:- पक्षीराज गरुड़जी सब माया-सर्पों के समूहों को पकड़कर खा गए। तब सब वानरों के झुंड माया से रहित होकर हर्षित हुए॥74 (क)॥
गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ॥74 ख॥
भावार्थ:- पर्वत, वृक्ष, पत्थर और नख धारण किए वानर क्रोधित होकर दौड़े। निशाचर विशेष व्याकुल होकर भाग चले और भागकर किले पर चढ़ गए॥74 (ख)॥
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