Home / Articles / Page / 9

लंका काण्ड दोहा 69

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :कुंभकरन मन दीख बिचारी। हति छन माझ निसाचर धारी॥भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥1॥ भावार्थ:- कुंभकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्री रामजी ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला। तब वह महाबली वीर

लंका काण्ड दोहा 68

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टंकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥1॥ भावार्थ:- हाथ में शार्गंधनुष और कमर में तरकस सजाकर श्री रघुनाथजी शत्रु सेना को दलन करने चले। प्रभु ने पहले तो ध

लंका काण्ड दोहा 67

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई॥1॥ भावार्थ:- रण के उत्साह में कुंभकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो। वह करोड़-

लंका काण्ड दोहा 66

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला॥भृकुटि भंग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥1॥ भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड़ सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो। 

लंका काण्ड दोहा 65

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥नाथ भूधराकार सरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा॥1॥॥ भावार्थ:- भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए, जहाँ त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे। (विभीषण ने कहा-) हे नाथ! पर्वत के समान (व

लंका काण्ड दोहा 64

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :महिषखाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥1॥ भावार्थ:-भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़क

लंका काण्ड दोहा 63

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥ भावार्थ:- हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो त

लंका काण्ड दोहा 62

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण)