Home / Articles / Page / 9

लंका काण्ड दोहा 65

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :बंधु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥नाथ भूधराकार सरीरा। कुंभकरन आवत रनधीरा॥1॥॥ भावार्थ:- भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए, जहाँ त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे। (विभीषण ने कहा-) हे नाथ! पर्वत के समान (व

लंका काण्ड दोहा 64

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :महिषखाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥कुंभकरन दुर्मद रन रंगा। चला दुर्ग तजि सेन न संगा॥1॥ भावार्थ:-भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुंभकर्ण किला छोड़क

लंका काण्ड दोहा 63

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥ भावार्थ:- हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोड़कर श्री रामजी को भजो त

लंका काण्ड दोहा 62

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण)

लंका काण्ड दोहा 61

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥1॥ भावार्थ:- वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान्‌ नहीं

लंका काण्ड दोहा 60

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥लकपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥ भावार्थ:- (भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्‌जी) 

लंका काण्ड दोहा 59

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥1॥ भावार्थ:- बाण लगते ही हनुमान्‌जी ‘राम, राम, रघुपति’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। प्रिय वचन (रा

लंका काण्ड दोहा 58

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥1॥ भावार्थ:- (उसने कहा-) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि न