Home / Articles / Page / 30

अयोध्याकाण्ड दोहा 302

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :कपट कुचालि सीवँ सुरराजू। पर अकाज प्रिय आपन काजू॥काक समान पाकरिपु रीती। छली मलीन कतहुँ न प्रतीती॥1॥ भावार्थ:- देवराज इन्द्र कपट और कुचाल की सीमा है। उसे पराई हानि और अपना लाभ ही प्रिय है। इन्द्र की रीति कौए के समान है। वह छल

अयोध्याकाण्ड दोहा 301

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :प्रभु पद पदुम पराग दोहाई। सत्य सुकृत सुख सीवँ सुहाई॥सो करि कहउँ हिए अपने की। रुचि जागत सोवत सपने की॥1॥ भावार्थ:- प्रभु (आप) के चरणकमलों की रज, जो सत्य, सुकृत (पुण्य) और सुख की सुहावनी सीमा (अवधि) है, उसकी दुहाई करके मैं अपने हृदय 

अयोध्याकाण्ड दोहा 300

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥ भावार्थ:- मैं शोक से या स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देख

अयोध्याकाण्ड दोहा 299

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :राउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई॥कूर कुटिल खल कुमति कलंकी। नीच निसील निरीस निसंकी॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! आपकी रीति और सुंदर स्वभाव की बड़ाई जगत में प्रसिद्ध है और वेद-शास्त्रों ने गाई है। जो क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कु

अयोध्याकाण्ड दोहा 298

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी। पूज्य परम हित अंतरजामी॥सरल सुसाहिबु सील निधानू। प्रनतपाल सर्बग्य सुजानू॥1॥ भावार्थ:- हे प्रभु! आप पिता, माता, सुहृद् (मित्र), गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं। सरल हृदय, श्र

अयोध्याकाण्ड दोहा 296

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :करि कुचालि सोचत सुरराजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥गए जनकु रघुनाथ समीपा। सनमाने सब रबिकुल दीपा॥1॥ भावार्थ:- कुचाल करके देवराज इन्द्र सोचने लगे कि काम का बनना-बिगड़ना सब भरतजी के हाथ है। इधर राजा जनकजी (मुनि वशिष्ठ आदि के साथ) श

अयोध्याकाण्ड दोहा 295

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही। देबि देव सरनागत पाही॥फेरि भरत मति करि निज माया। पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥1॥ भावार्थ:- देवताओं ने सरस्वती का स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा- हे देवी! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीज

अयोध्याकाण्ड दोहा 294

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :भरत बचन सुनि देखि सुभाऊ। सहित समाज सराहत राऊ॥सुगम अगम मृदु मंजु कठोरे। अरथु अमित अति आखर थोरे॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के वचन सुनकर और उनका स्वभाव देखकर समाज सहित राजा जनक उनकी सराहना करने लगे। भरतजी के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोम