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अयोध्याकाण्ड दोहा 300


चौपाई :

सोक सनेहँ कि बाल सुभाएँ। आयउँ लाइ रजायसु बाएँ॥
तबहुँ कृपाल हेरि निज ओरा। सबहि भाँति भल मानेउ मोरा॥1॥

 

भावार्थ:- मैं शोक से या स्नेह से या बालक स्वभाव से आज्ञा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो भी कृपालु स्वामी (आप) ने अपनी ओर देखकर सभी प्रकार से मेरा भला ही माना (मेरे इस अनुचित कार्य को अच्छा ही समझा)॥1॥

 

देखेउँ पाय सुमंगल मूला। जानेउँ स्वामि सहज अनुकूला।
बड़ें समाज बिलोकेउँ भागू। बड़ीं चूक साहिब अनुरागू॥2॥

 

भावार्थ:- मैंने सुंदर मंगलों के मूल आपके चरणों का दर्शन किया और यह जान लिया कि स्वामी मुझ पर स्वभाव से ही अनुकूल हैं। इस बड़े समाज में अपने भाग्य को देखा कि इतनी बड़ी चूक होने पर भी स्वामी का मुझ पर कितना अनुराग है!॥2॥

 

कृपा अनुग्रहु अंगु अघाई। कीन्हि कृपानिधि सब अधिकाई॥
राखा मोर दुलार गोसाईं। अपनें सील सुभायँ भलाई॥3॥

 

भावार्थ:- कृपानिधान ने मुझ पर सांगोपांग भरपेट कृपा और अनुग्रह, सब अधिक ही किए हैं (अर्थात मैं जिसके जरा भी लायक नहीं था, उतनी अधिक सर्वांगपूर्ण कृपा आपने मुझ पर की है)। हे गोसाईं! आपने अपने शील, स्वभाव और भलाई से मेरा दुलार रखा॥3॥

 

नाथ निपट मैं कीन्हि ढिठाई। स्वामि समाज सकोच बिहाई॥
अबिनय बिनय जथारुचि बानी। छमिहि देउ अति आरति जानी॥4॥

 

भावार्थ:- हे नाथ! मैंने स्वामी और समाज के संकोच को छोड़कर अविनय या विनय भरी जैसी रुचि हुई वैसी ही वाणी कहकर सर्वथा ढिठाई की है। हे देव! मेरे आर्तभाव (आतुरता) को जानकर आप क्षमा करेंगे॥4॥

 

दोहा :

सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
आयसु देइअ देव अब सबइ सुधारी मोरि॥300॥

 

भावार्थ:- सुहृद् (बिना ही हेतु के हित करने वाले), बुद्धिमान और श्रेष्ठ मालिक से बहुत कहना बड़ा अपराध है, इसलिए हे देव! अब मुझे आज्ञा दीजिए, आपने मेरी सभी बात सुधार दी॥300॥

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