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अयोध्याकाण्ड दोहा 293

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चौपाई :सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले भरतु धीर धरि भारी॥प्रभु प्रिय पूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥1॥ भावार्थ:- भरतजी यह सुनकर पुलकित शरीर हो नेत्रों में जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले- हे प्रभो! आप हमारे पिता के सम

अयोध्याकाण्ड दोहा 292

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चौपाई :सुनि मुनि बचन जनक अनुरागे। लखि गति ग्यानु बिरागु बिरागे॥सिथिल सनेहँ गुनत मन माहीं। आए इहाँ कीन्ह भल नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मुनि वशिष्ठजी के वचन सुनकर जनकजी प्रेम में मग्न हो गए। उनकी दशा देखकर ज्ञान और वैराग्य को भी वैराग्य ह

अयोध्याकाण्ड दोहा 291

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चौपाई :सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥जोगु कुजोगु ग्यानु अग्यानू। जहँ नहिं राम प्रेम परधानू॥1॥ भावार्थ:- जहाँ श्री राम के चरण कमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाए, जिसमें श्री राम प्रेम की प्रधानता न

अयोध्याकाण्ड दोहा 290

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चौपाई :राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहि पलक सम बीती॥राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी और भरतजी के गुणों की प्रेमपूर्वक गणना करते (कहते-सुनते) पति-पत्नी को रात पलक के समान बीत गई। प्रात

अयोध्याकाण्ड दोहा 289

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चौपाई :अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥1॥ भावार्थ:- हे श्रेष्ठ वर्णवाली! भरतजी की महिमा का वर्णन करना सभी के लिए वैसे ही अगम है जैसे जलरहित पृथ्वी पर मछली का चलना। 

अयोध्याकाण्ड दोहा 288

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चौपाई :सुनि भूपाल भरत ब्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू॥मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन॥1॥ भावार्थ:- सोने में सुगंध और (समुद्र से निकली हुई) सुधा में चन्द्रमा के सार अमृत के समान भरतजी का व्यवहार सुनकर राजा ने (प्रे

अयोध्याकाण्ड दोहा 287

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चौपाई :तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी॥पुत्रि पबित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ॥1॥ भावार्थ:- सीताजी को तपस्विनी वेष में देखकर जनकजी को विशेष प्रेम और संतोष हुआ। (उन्होंने कहा-) बेटी! तूने दोनों कुल पवित्र क

अयोध्याकाण्ड दोहा 286

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चौपाई :प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही॥तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी॥1॥ भावार्थ:- जानकीजी अपने प्यारे कुटुम्बियों से- जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकीजी को तपस्विनी के वेष मे