अयोध्याकाण्ड दोहा 285
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चौपाई :लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥1॥ भावार्थ:- कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए