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अयोध्याकाण्ड दोहा 285

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चौपाई :लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता॥देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी॥1॥ भावार्थ:- कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिए 

अयोध्याकाण्ड दोहा 284

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चौपाई :रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई॥रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन॥1॥ भावार्थ:- हे रानी! मौका पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहाँ तक हो सके समझाकर कहिएगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाए और भरत वन को जाएँ

अयोध्याकाण्ड दोहा 283

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चौपाई :ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी॥राम सपथ मैं कीन्हि न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ॥1॥ भावार्थ:- ईश्वर के अनुग्रह और आपके आशीर्वाद से मेरे (चारों) पुत्र और (चारों) बहुएँ गंगाजी के जल के समान पवित्र हैं। हे सखी! म

अयोध्याकाण्ड दोहा 282

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चौपाई :सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा॥जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी॥1॥ भावार्थ:- यह सुनकर देवी सुमित्राजी शोक के साथ कहने लगीं- विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टि को उ

अयोध्याकाण्ड दोहा 281

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चौपाई :एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं॥सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार सब मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही (सुनने वालों के) मनों को हर लेते हैं। उसी समय सीताज

अयोध्याकाण्ड दोहा 280

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चौपाई :एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी॥दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार चार दिन बीत गए। श्री रामचन्द्रजी को देखकर सभी नर-नारी सुखी हैं। दोनों समाजों के मन में ऐसी इच

अयोध्याकाण्ड दोहा 279

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चौपाई :कामद भे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा॥सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी की कृपा से सब पर्वत मनचाही वस्तु देने वाले हो गए। वे देखने मात्र से ही दुःखों को सर्वथा हर लेते थे

अयोध्याकाण्ड दोहा 278

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चौपाई :जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी॥हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा॥1॥ भावार्थ:- जो दशरथजी की नगरी अयोध्या के रहने वाले और जो मिथिलापति जनकजी के नगर जनकपुर के रहने वाले ब्राह्मण थे तथा सूर्य