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अयोध्याकाण्ड दोहा 277

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चौपाई :जासु ग्यान रबि भव निसि नासा। बचन किरन मुनि कमल बिकासा॥तेहि कि मोह ममता निअराई। यह सिय राम सनेह बड़ाई॥1॥ भावार्थ:- जिन राजा जनक का ज्ञान रूपी सूर्य भव (आवागमन) रूपी रात्रि का नाश कर देता है और जिनकी वचन रूपी किरणें मुनि रूपी कम

अयोध्याकाण्ड दोहा 276

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चौपाई :बोरति ग्यान बिराग करारे। बचन ससोक मिलत नद नारे॥सोच उसास समीर तरंगा। धीरज तट तरुबर कर भंगा॥1॥ भावार्थ:- यह करुणा की नदी (इतनी बढ़ी हुई है कि) ज्ञान-वैराग्य रूपी किनारों को डुबाती जाती है। शोक भरे वचन नद और नाले हैं, जो इस नदी मे

अयोध्याकाण्ड दोहा 275

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चौपाई :भाइ सचिव गुर पुरजन साथा। आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा॥गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं। करि प्रनामु रथ त्यागेउ तबहीं॥1॥ भावार्थ:- भाई, मंत्री, गुरु और पुरवासियों को साथ लेकर श्री रघुनाथजी आगे (जनकजी की अगवानी में) चले। जनकजी ने ज्यों ह

अयोध्याकाण्ड दोहा 274

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चौपाई :सुनि सनेहमय पुरजन बानी। निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी॥एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन। रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन॥1॥ भावार्थ:- अयोध्या वासियों की प्रेममयी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि भी अपने योग और वैराग्य की निंदा करते हैं। अ

अयोध्याकाण्ड दोहा 273

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चौपाई :गरइ गलानि कुटिल कैकेई। काहि कहै केहि दूषनु देई॥अस मन आनि मुदित नर नारी। भयउ बहोरि रहब दिन चारी॥1॥ भावार्थ:- कुटिल कैकेयी मन ही मन ग्लानि (पश्चाताप) से गली जाती है। किससे कहे और किसको दोष दे? और सब नर-नारी मन में ऐसा विचार कर प्

अयोध्याकाण्ड दोहा 272

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चौपाई :दूतन्ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामति बरनी॥सुनि गुर परिजन सचिव महीपति। भे सब सोच सनेहँ बिकल अति॥1॥ भावार्थ:- (गुप्त) दूतों ने आकर राजा जनकजी की सभा में भरतजी की करनी का अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन किया। उसे सुनकर गुरु, कुटु

अयोध्याकाण्ड दोहा 271

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चौपाई :कोसलपति गति सुनि जनकौरा। भे सब लोक सोकबस बौरा॥जेहिं देखे तेहि समय बिदेहू। नामु सत्य अस लाग न केहू॥1॥ भावार्थ:- अयोध्यानाथ की गति (दशरथजी का मरण) सुनकर जनकपुर वासी सभी लोग शोकवश बावले हो गए (सुध-बुध भूल गए)। उस समय जिन्होंने व

अयोध्याकाण्ड दोहा 270

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चौपाई :भरत बचन सुचि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनबासी॥1॥ भावार्थ:- भरतजी के पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और ‘साधु-साधु’ कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए। अयोध्या