Home / Articles / Page / 3

लंका काण्ड दोहा 115

Filed under: Lanka Kand
छंदमामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक।।मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन।।1।।भावार्थ:-हे रघुकुल के स्वामी! सुंदर हाथों में श्रेष्ठ धनुष और सुंदर बाण धारण किए हुए आप मेरी रक्षा कीजिए। आप महामोहरूपी मेघ

लंका काण्ड दोहा 114

Filed under: Lanka Kand
चौपाईसुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे।।मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।1।।भावार्थ:-हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हि

लंका काण्ड दोहा 113

Filed under: Lanka Kand
छंद –जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम।।धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप।।1।।भावार्थ:-शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देने वाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, प्रबल प्रतापी भुज दंडों वाले श्रीरामचंद्रजी की जय हो

लंका काण्ड दोहा 112

Filed under: Lanka Kand
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए।।अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा।।1 ।।भावार्थ:-उसी समय दशरथजी वहाँ आए। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजी स

लंका काण्ड दोहा 111

Filed under: Lanka Kand
छंद-जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे।।भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥भावार्थ:-हे नित्य सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथ

लंका काण्ड दोहा 110

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥ भावार्थ:-तब श्री रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इंद्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता 

लंका काण्ड दोहा 109

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥ भावार्थ:- प्रभु के वचनों को सिर चढ़ाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर

लंका काण्ड दोहा 108

Filed under: Lanka Kand
चौपाई :अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥ भावार्थ:- हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी