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लंका काण्ड दोहा 89

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चौपाई :देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥1॥ भावार्थ:- देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बड़ा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ। 

लंका काण्ड दोहा 88

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चौपाई :मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥ भावार्थ:- भूत, पिशाच और बेताल, बड़े-बड़े झोंटों वाले महान्‌ भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और 

लंका काण्ड दोहा 87

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चौपाई :एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥1॥ भावार्थ:- इसी बीच में निशाचरों की अत्यंत घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामन

लंका काण्ड दोहा 86

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चौपाई :चलत होहिं अति असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥ भावार्थ:- चलते समय अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश 

लंका काण्ड दोहा 85

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चौपाई :इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥ भावार्थ:- यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध

लंका काण्ड दोहा 84

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चौपाई:जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥ भावार्थ:- हनुमान्‌जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे। हनुमान्‌जी ने रावण क

लंका काण्ड दोहा 83

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चौपाई :रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती॥1॥ भावार्थ:- (लक्ष्मणजी ने पास जाकर कहा-) अरे दुष्ट! वानर भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा

लंका काण्ड दोहा 82

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चौपाई :धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर॥गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥1॥ भावार्थ:- रावण अत्यंत क्रोधित होकर दौड़ा। वानर हुँकार करते हुए (लड़ने के लिए) उसके सामने चले। उन्होंने हाथों में वृक्ष, पत