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लंका काण्ड दोहा 91

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चौपाई :कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर। कुलिस समान लाग छाँड़ै सर॥॥नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥1॥ भावार्थ:- दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोड़ने लगा। अनेकों आकार के बाण दौड़े और दिशा, विदिशा त

लंका काण्ड दोहा 90

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चौपाई :अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पंकज सिरु नावा॥तब लंकेस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा ग

लंका काण्ड दोहा 89

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चौपाई :देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥1॥ भावार्थ:- देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बड़ा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ। 

लंका काण्ड दोहा 88

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चौपाई :मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिंग कराला॥काक कंक लै भुजा उड़ाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥ भावार्थ:- भूत, पिशाच और बेताल, बड़े-बड़े झोंटों वाले महान्‌ भयंकर झोटिंग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और 

लंका काण्ड दोहा 87

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चौपाई :एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥1॥ भावार्थ:- इसी बीच में निशाचरों की अत्यंत घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामन

लंका काण्ड दोहा 86

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चौपाई :चलत होहिं अति असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर॥भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥ भावार्थ:- चलते समय अत्यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश 

लंका काण्ड दोहा 85

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चौपाई :इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥ भावार्थ:- यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध

लंका काण्ड दोहा 84

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चौपाई:जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥ भावार्थ:- हनुमान्‌जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए संभलकर उठे। हनुमान्‌जी ने रावण क