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सुंदरकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥भावार्थ:- अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जा

सुंदरकाण्ड दोहा 04

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चौपाई :मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥भावार्थ:- हनुमान्‌जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को 

सुंदरकाण्ड दोहा 03

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चौपाई : निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥भावार्थ:- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जं

सुंदरकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥भावार्थ:- देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्हों

सुंदरकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥भावार्थ:-जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल ख

सुंदरकांड की शुरुआत - श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसपञ्चम सोपानश्री सुन्दर काण्डश्लोक :  शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदंब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।रामाख्यं जगदीश्वरं सुरग