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लंका काण्ड दोहा 37

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चौपाई :जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥ भावार्थ:- जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वर

लंका काण्ड दोहा 36

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चौपाई :कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥1॥ भावार्थ:- हे कान्त! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनक

लंका काण्ड दोहा 35

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चौपाई :कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥1॥ भावार्थ:- अंगद का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बालि कुमा

लंका काण्ड दोहा 34

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चौपाई :मैं तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लंका गहि समुद्र महँ बोरौं॥1॥ भावार्थ:- मैं तेरे दाँत तोड़ने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? श्री रघुनाथजी ने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि 

लंका काण्ड दोहा 33

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चौपाई :एहि बधि बेगि सुभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई॥1॥ भावार्थ:- (रावण फिर बोला-) इसे मारकर सब योद्धा तुरंत दौड़ो और जहाँ कहीं रीछ-वानरों को पाओ, वहीं खा डालो। पृथ्वी को बं

लंका काण्ड दोहा 32

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चौपाई :जब तेहिं कीन्हि राम कै निंदा। क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा॥हरि हर निंदा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥1॥ भावार्थ:- जब उसने श्री रामजी की निंदा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यंत क्रोधित हुए, क्योंकि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो

लंका काण्ड दोहा 31

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चौपाई :जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥ भावार्थ:- यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बड़ाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वामम

लंका काण्ड दोहा 30

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चौपाई :अब जनि बतबढ़ाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥1॥ भावार्थ:- अरे दुष्ट! अब बतबढ़ाव मत कर, मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह (सन्धि करने) नहीं आया हूँ। श