Home / Articles / Page / 28

अयोध्याकाण्ड दोहा 318

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :जहाँ जनक गुरु गति मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी॥बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू॥1॥ भावार्थ:- जहाँ जनकजी और गुरु वशिष्ठजी की बुद्धि की गति कुण्ठित हो, उस दिव्य प्रेम को प्राकृत (लौकिक) कहने में बड़ा द

अयोध्याकाण्ड दोहा 317

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी। अवधि आस सम जीवनि जी की॥नतरु लखन सिय राम बियोगा। हहरि मरत सब लोग कुरोगा॥1॥ भावार्थ:- वह कुचाल भी सबके लिए हितकर हो गई। अवधि की आशा के समान ही वह जीवन के लिए संजीवनी हो गई। नहीं तो (उच्चाटन न होता तो) लक्

अयोध्याकाण्ड दोहा 316

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती। बिनु अधार मन तोषु न साँती॥1॥ भावार्थ:- राजधर्म का सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्री रघुनाथजी ने भाई भरत को बहुत प्र

अयोध्याकाण्ड दोहा 315

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :तात तुम्हारि मोरि परिजन की। चिंता गुरहि नृपहि घर बन की॥माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू। हमहि तुम्हहि सपनेहूँ न कलेसू॥1॥ भावार्थ:- हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवार की, घर की और वन की सारी चिंता गुरु वशिष्ठजी और महाराज जनकजी को है। हम

अयोध्याकाण्ड दोहा 314

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं। सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं॥राउर बदि भल भव दुख दाहू। प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥1॥ भावार्थ:- हे गोसाईं! आपके प्रेम और संबंध में अवधपुर वासी, कुटुम्बी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनंद) से युक्त हैं। आपके 

अयोध्याकाण्ड दोहा 313

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूमिसुर तेरहुति राजू॥भल दिन आजु जानि मन माहीं। रामु कृपाल कहत सकुचाहीं॥1॥ भावार्थ:- (अगले छठे दिन) सबेरे स्नान करके भरतजी, ब्राह्मण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज सबको विदा करने के लिए अच्छा 

अयोध्याकाण्ड दोहा 312

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं॥पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार भरतजी वन में फिर रहे हैं। उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र 

अयोध्याकाण्ड दोहा 311

Filed under: Ayodhyakand
चौपाई :कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती॥नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई॥1॥ भावार्थ:- प्रेमपूर्वक धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्यक्रिया पूरी