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अयोध्याकाण्ड दोहा 326

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चौपाई :पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू। जीह नामु जप लोचन नीरू॥लखन राम सिय कानन बसहीं। भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं॥1॥ भावार्थ:- शरीर पुलकित है, हृदय में श्री सीता-रामजी हैं। जीभ राम नाम जप रही है, नेत्रों में प्रेम का जल भरा है। लक्ष्मणजी, श्

अयोध्याकाण्ड दोहा 325

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चौपाई :देह दिनहुँ दिन दूबरि होई। घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई॥नित नव राम प्रेम पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना॥1॥ भावार्थ:- भरतजी का शरीर दिनों-दिन दुबला होता जाता है। तेज (अन्न, घृत आदि से उत्पन्न होने वाला मेद*) घट रहा है। बल और मुख छबि

अयोध्याकाण्ड दोहा 324

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चौपाई :राम मातु गुर पद सिरु नाई। प्रभु पद पीठ रजायसु पाई॥नंदिगाँव करि परन कुटीरा। कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा॥1॥ भावार्थ:- फिर श्री रामजी की माता कौसल्याजी और गुरुजी के चरणों में सिर नवाकर और प्रभु की चरणपादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्

अयोध्याकाण्ड दोहा 323

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चौपाई :सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे। निज निज काज पाइ सिख ओधे॥पुनि सिख दीन्हि बोलि लघु भाई। सौंपी सकल मातु सेवकाई॥1॥ भावार्थ:- भरतजी ने मंत्रियों और विश्वासी सेवकों को समझाकर उद्यत किया। वे सब सीख पाकर अपने-अपने काम में लग गए। फिर छोटे

अयोध्याकाण्ड दोहा 322

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चौपाई :मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू। राम बिरहँ सबु साजु बिहालू।प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं। सब चुपचाप चले मग जाहीं॥1॥ भावार्थ:- मुनि, ब्राह्मण, गुरु वशिष्ठजी, भरतजी और राजा जनकजी सारा समाज श्री रामचन्द्रजी के विरह में विह्वल है। प्

अयोध्याकाण्ड दोहा 321

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चौपाई :बिदा कीन्ह सनमानि निषादू। चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू॥कोल किरात भिल्ल बनचारी। फेरे फिरे जोहारि जोहारी॥1॥ भावार्थ:- फिर सम्मान करके निषादराज को विदा किया। वह चला तो सही, किन्तु उसके हृदय में विरह का भारी विषाद था। फिर श्री र

अयोध्याकाण्ड दोहा 320

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चौपाई :परिजन मातु पितहि मिलि सीता। फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता॥करि प्रनामु भेंटीं सब सासू। प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू॥1॥ भावार्थ:- प्राणप्रिय पति श्री रामचंद्रजी के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नैहर के कुटुम्बियों से 

अयोध्याकाण्ड दोहा 319

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चौपाई :सानुज राम नृपहि सिर नाई। कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई॥देव दया बस बड़ दुखु पायउ। सहित समाज काननहिं आयउ॥1॥ भावार्थ:- छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत श्री रामजी ने राजा जनकजी को सिर नवाकर उनकी बहुत प्रकार से विनती और बड़ाई की (और कहा-) हे द