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अरण्यकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥ भावार्थ:- मुनि के चरण कमलों में सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्री रामजी वन को चले। आगे श्री रामजी हैं औ

अरण्यकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥ भावार्थ:- जानकीजी ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणों में सिर नवाया। तब कृपा की खान श्री रामजी ने मुनि से कहा- आज्

अरण्यकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥1॥ भावार्थ:- फिर परम शीलवती और विनम्र श्री सीताजी अनसूयाजी (आत्रिजी की पत्नी) के चरण पकड़कर उनसे मिलीं। ऋषि पत्नी के मन में बड़

अरण्यकाण्ड दोहा 4

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छन्द :नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥ भावार्थ:- हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मै

अरण्यकाण्ड दोहा 3

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चौपाई :रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥ भावार्थ : अमृत के समान (प्रिय) हैं। फिर (कुछ समय पश्चात) श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए है

अरण्यकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥1॥ भावार्थ:- मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के 

अरण्यकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥ भावार्थ:- पुरवासियों के और भरतजी के अनुपम और सुंदर प्रेम का मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार गान किया। अब देवता, मनुष्य 

अरण्यकाण्ड शूरूआत श्लोक

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श्लोक : मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददंवैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्‌।मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शंकरंवंदे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्री रामभूपप्रियम्‌॥1॥ भावार्थ:- धर्म रूपी वृक्ष