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अरण्यकाण्ड दोहा 15

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चौपाई :थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥ भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे तात! मैं थोड़े ही में सब समझाकर कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो! मैं और

अरण्यकाण्ड दोहा 14

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चौपाई :जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥ भावार्थ:- जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा स

अरण्यकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥ भावार्थ:- तब श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे प्रभो! आप से तो कुछ छिपाव है नहीं। मैं जिस कारण से आया हूँ, वह आप जानते 

अरण्यकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुंभज रिषि पासा॥बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥ भावार्थ:- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ऐसा उच्चारण कर लक्ष्मी निवास श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले। (तब सुती

अरण्यकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥ भावार्थ:- मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और 

अरण्यकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥ भावार्थ:- मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान (ज्ञानी) शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। वे मन, वचन और कर्म से श्र

अरण्यकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥ भावार्थ:- ऐसा कहकर शरभंगजी ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और श्री रामजी की कृपा से वे वैकुंठ को चले गए। मुनि भगवान

अरण्यकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला॥जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥ भावार्थ:- मुनि ने कहा- हे कृपालु रघुवीर! हे शंकरजी मन रूपी मानसरोवर के राजहंस! सुनिए, मैं ब्रह्मलोक को जा रहा था। (इतने म