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अरण्यकाण्ड दोहा 23

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चौपाई :सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥1॥ भावार्थ:- (वह मन ही मन विचार करने लगा-) देवता, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं, जो मेरे सेवक को भी पा सके। ख

अरण्यकाण्ड दोहा 22

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चौपाई :सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥कह लंकेस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥ भावार्थ:- शूर्पणखा के वचन सुनते ही सभासद् अकुला उठे। उन्होंने शूर्पणखा की बाँह पकड़कर उसे उठाया और समझाया। लंकापति रावण ने कह

अरण्यकाण्ड दोहा 21

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चौपाई :जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥ भावार्थ:- जब श्री रघुनाथजी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए, तब लक्ष्मणजी सीताजी

अरण्यकाण्ड दोहा 20

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छन्द :तब चले बान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल॥कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥ भावार्थ:- तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फुफकारते हुए बहुत से सर्प जा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी संग्राम में क्रुद्ध हुए और अत्यन्त तीक्ष्ण बाण च

अरण्यकाण्ड दोहा 19

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चौपाई :प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी॥सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥1॥ भावार्थ:- (सौंदर्य-माधुर्यनिधि) प्रभु श्री रामजी को देखकर राक्षसों की सेना थकित रह गई। वे उन पर बाण नहीं छोड़ सके। मंत्री क

अरण्यकाण्ड दोहा 18

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चौपाई :नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥1॥ भावार्थ:- बिना नाक-कान के वह विकराल हो गई। (उसके शरीर से रक्त इस प्रकार बहने लगा) मानो (काले) पर्वत से गेरू की धारा बह रही

अरण्यकाण्ड दोहा 17

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चौपाई :भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा॥एहि बिधि कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥1॥ भावार्थ:- इस भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मणजी ने अत्यंत सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों में सि

अरण्यकाण्ड दोहा 16

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चौपाईधर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥ भावार्थ:- धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया