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किष्किंधाकांड दोहा 16

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चौपाई :बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥ भावार्थ:- हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रू

किष्किंधाकांड दोहा 15

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चौपाई :दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥1॥ भावार्थ:- चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। अनेको

किष्किंधाकांड दोहा 14

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चौपाई :घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥दामिनि दमक रह नघन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥1॥ भावार्थ:- आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों म

किष्किंधाकांड दोहा 13

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चौपाई :सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥1॥ भावार्थ:- सुंदर वन फूला हुआ अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब से प्रभु आए, तब से वन में स

किष्किंधाकांड दोहा 12

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चौपाई :उमा राम सम हत जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥1॥ भावार्थ:- हे पार्वती! जगत में श्री रामजी के समान हित करने वाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है। देव

किष्किंधाकांड दोहा 11

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चौपाई :राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब व्याकुल धावा॥नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा॥1॥ भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने बालि को अपने परम धाम भेज दिया। नगर के सब लोग व्याकुल होकर दौड़े। बालि की स्त्री तारा अनेकों प्र

किष्किंधाकांड दोहा 10

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चौपाई :सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥1॥ भावार्थ:- बालि की अत्यंत कोमल वाणी सुनकर श्री रामजी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया (और कहा-) मैं तुम्हारे शरीर को

किष्किंधाकांड दोहा 9

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चौपाई :परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥1॥ भावार्थ:- बाण के लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा, किंतु प्रभु श्री रामचंद्रजी को आगे देखकर वह फिर उठ बैठा।