किष्किंधाकांड दोहा 13
चौपाई :
सुंदर बन कुसुमित अति सोभा। गुंजत मधुप निकर मधु लोभा॥
कंद मूल फल पत्र सुहाए। भए बहुत जब ते प्रभु आए॥1॥
भावार्थ:- सुंदर वन फूला हुआ अत्यंत सुशोभित है। मधु के लोभ से भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। जब से प्रभु आए, तब से वन में सुंदर कन्द, मूल, फल और पत्तों की बहुतायत हो गई॥1॥
देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा॥2॥
भावार्थ:- मनोहर और अनुपम पर्वत को देखकर देवताओं के सम्राट् श्री रामजी छोटे भाई सहित वहाँ रह गए। देवता, सिद्ध और मुनि भौंरों, पक्षियों और पशुओं के शरीर धारण करके प्रभु की सेवा करने लगे॥2॥
मंगलरूप भयउ बन तब ते। कीन्ह निवास रमापति जब ते॥
फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई॥3॥
भावार्थ:- जब से रमापति श्री रामजी ने वहाँ निवास किया तब से वन मंगलस्वरूप हो गया। सुंदर स्फटिक मणि की एक अत्यंत उज्ज्वल शिला है, उस पर दोनों भाई सुखपूर्वक विराजमान हैं॥3॥
कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरत नृपनीति बिबेका॥
बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए॥4॥
भावार्थ:-श्री राम छोटे भाई लक्ष्मणजी से भक्ति, वैराग्य, राजनीति और ज्ञान की अनेकों कथाएँ कहते हैं। वर्षाकाल में आकाश में छाए हुए बादल गरजते हुए बहुत ही सुहावने लगते हैं॥4॥
दोहा :
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही बिरति रत हरष जस बिष्नुभगत कहुँ देखि॥13॥
भावार्थ:- (श्री रामजी कहने लगे-) हे लक्ष्मण! देखो, मोरों के झुंड बादलों को देखकर नाच रहे हैं जैसे वैराग्य में अनुरक्त गृहस्थ किसी विष्णुभक्त को देखकर हर्षित होते हैं॥13॥
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