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किष्किंधाकांड शुरुआत श्लोक

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श्लोक :कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौशोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौसीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥1॥ भावार्थ:-कुन्दपुष्प और नीलकम

अरण्यकाण्ड दोहा 46

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चौपाई :निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥ भावार्थ:- कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, 

अरण्यकाण्ड दोहा 45

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चौपाई :सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी के सुंदर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र (प्रेमाश्रुओं के जल से) भर आए। (वे मन ही म

अरण्यकाण्ड दोहा 44

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चौपाई :सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1 भावार्थ:- हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोह रूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री वसंत ऋतु के समान है। ज

अरण्यकाण्ड दोहा 43

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चौपाई :अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी॥राम जबहिं प्रेरेउ निज माया मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥ भावार्थ:- श्री रघुनाथजी को अत्यंत प्रसन्न जानकर नारदजी फिर कोमल वाणी बोले- हे रामजी! हे रघुनाथजी! सुनिए, जब आपने 

अरण्यकाण्ड दोहा 42

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चौपाई :सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक॥देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी॥1॥ भावार्थ:- हे स्वभाव से ही उदार श्री रघुनाथजी! सुनिए। आप सुंदर अगम और सुगम वर के देने वाले हैं। हे स्वामी! मैं एक वर माँगता हूँ, 

अरण्यकाण्ड दोहा 41

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चौपाई :देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥ भावार्थ:- श्री रामजी ने अत्यंत सुंदर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुंदर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्री रघ

अरण्यकाण्ड दोहा 40

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चौपाई :बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा॥बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥1॥ भावार्थ:- उसमें रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं। बहुत से भौंरे मधुर स्वर से गुंजार कर रहे हैं। जल के मुर्गे और राजहंस बो