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लंका काण्ड दोहा 21

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चौपाई :रे कपिपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी॥कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई॥1॥ भावार्थ:- (रावण ने कहा-) अरे बंदर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने ब�

लंका काण्ड दोहा 20

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चौपाई :कह दसकंठ कवन तैं बंदर। मैं रघुबीर दूत दसकंधर॥मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥1॥ भावार्थ:- रावण ने कहा- अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा-) हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इ�

लंका काण्ड दोहा 19

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चौपाई :तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा॥सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥1॥ भावार्थ:- तुरंत ही उन्होंने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला- बुला लाओ, (देख

लंका काण्ड दोहा 18

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चौपाई :बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई॥प्रभु प्रताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बालिसुत बंका॥1॥ भावार्थ:- चरणों की वंदना करके और भगवान्‌ की प्रभुता हृदय में धरकर अंगद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के प्रताप को हृदय �

लंका काण्ड दोहा 17

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चौपाई :इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवंत कह पद सिरु नाई॥1॥ भावार्थ:- यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होंने सब मंत्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क

लंका काण्ड दोहा 16

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चौपाई :बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥1॥ भावार्थ:- पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला-) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बड़ी बलवान्‌ है। स्त्री का स्वभाव स�

लंका काण्ड दोहा 15

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चौपाई :पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥1॥ भावार्थ:- पाताल (जिन विश्व रूप भगवान्‌ का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्�

लंका काण्ड दोहा 14

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चौपाई :कंप न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयंकर भारी॥1॥ भावार्थ:- न भूकम्प हुआ, न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्�