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लंका काण्ड दोहा 9

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चौपाई :कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥॥1॥ भावार्थ:- ये सभी मूर्ख (खुशामदी) मन्त्र ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पड़े

लंका काण्ड दोहा 8

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चौपाई :तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥1॥ भावार्थ:- तब रावण ने मंदोदरी को उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा- हे प्रिये! सुन, तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है। 

लंका काण्ड दोहा 7

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चौपाई :नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते॥1॥ भावार्थ:- हे नाथ! श्री रघुनाथजी तो दीनों पर दया करने वाले हैं। सम्मुख (शरण) जाने पर तो बाघ भी नहीं खाता। आपको जो कुछ करना चाहिए 

लंका काण्ड दोहा 6

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चौपाई :निज बिकलता बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥1॥ भावार्थ:- फिर अपनी व्याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हुआ, भय को भुलाकर, रावण महल को गया। (जब) मंदोदरी ने सुना कि प्रभ

लंका काण्ड दोहा 5

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चौपाई :अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥1॥ भावार्थ:- कृपालु रघुनाथजी (तथा लक्ष्मणजी) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। श्री रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार 

लंका काण्ड दोहा 4

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चौपाई :बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥1॥ भावार्थ:- नल-नील ने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखने पर वह कृपानिधान श्री रामजी के मन को (बहुत ही) अच्छा लगा। 

लंका काण्ड दोहा 3

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चौपाई :जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥ भावार्थ:- जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएँगे और 

लंका काण्ड दोहा 2

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चौपाई :सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कंदुक इव नल नील ते लेहीं॥देखि सेतु अति सुंदर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥1॥ भावार्थ:- वानर बड़े-बड़े पहाड़ ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना द