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सुंदरकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥भावार्थ:- तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे

सुंदरकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥भावार्थ:- सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शर

सुंदरकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥भावार्थ:- उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थ

सुंदरकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥भावार्थ:- सीता! तूने मेरा अपनाम किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा। नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले। 

सुंदरकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥भावार्थ:- हनुमान्‌जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत स

सुंदरकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥भावार्थ:- जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों 

सुंदरकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥भावार्थ:- (विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी 

सुंदरकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥भावार्थ:- लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर