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किष्किंधाकांड दोहा 18


चौपाई :

बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई॥
एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालुह जीति निमिष महुँ आनौं॥1॥

 

भावार्थ:- वर्षा बीत गई, निर्मल शरद्ऋतु आ गई, परंतु हे तात! सीता की कोई खबर नहीं मिली। एक बार कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर में जानकी को ले आऊँ॥1॥

 

कतहुँ रहउ जौं जीवति होई। तात जतन करि आनउँ सोई॥
सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी॥2॥

 

भावार्थ:- कहीं भी रहे, यदि जीती होगी तो हे तात! यत्न करके मैं उसे अवश्य लाऊँगा। राज्य, खजाना, नगर और स्त्री पा गया, इसलिए सुग्रीव ने भी मेरी सुध भुला दी॥2॥

 

जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली॥
जासु कृपाँ छूटहिं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा॥3॥

भावार्थ:- जिस बाण से मैंने बालि को मारा था, उसी बाण से कल उस मूढ़ को मारूँ! (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जिनकी कृपा से मद और मोह छूट जाते हैं उनको कहीं स्वप्न में भी क्रोध हो सकता है? (यह तो लीला मात्र है)॥3॥

 

जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी॥
लछिमन क्रोधवंत प्रभु जाना। धनुष चढ़ाई गहे कर बाना॥4॥

 

भावार्थ:- ज्ञानी मुनि जिन्होंने श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रीति मान ली है (जोड़ ली है), वे ही इस चरित्र (लीला रहस्य) को जानते हैं। लक्ष्मणजी ने जब प्रभु को क्रोधयुक्त जाना, तब उन्होंने धनुष चढ़ाकर बाण हाथ में ले लिए॥4॥

 

दोहा :

तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव।
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव॥18॥

 

भावार्थ:- तब दया की सीमा श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को समझाया कि हे तात! सखा सुग्रीव को केवल भय दिखलाकर ले आओ (उसे मारने की बात नहीं है)॥18॥

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