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अयोध्याकाण्ड दोहा 210


चौपाई :

कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहँ बस राम पेम मृगरूपा॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ॥1॥

 

भावार्थ:- (परन्तु उनसे भी बढ़कर) तुमने कीर्ति रूपी अनुपम चंद्रमा को उत्पन्न किया, जिसमें श्री राम प्रेम ही हिरन के (चिह्न के) रूप में बसता है। हे तात! तुम व्यर्थ ही हृदय में ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रता से डर रहे हो!॥1॥

 

सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं। उदासीन तापस बन रहहीं॥
सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन राम सिय दरसनु पावा॥2॥

 

भावार्थ:- हे भरत! सुनो, हम झूठ नहीं कहते। हम उदासीन हैं (किसी का पक्ष नहीं करते), तपस्वी हैं (किसी की मुँह देखी नहीं कहते) और वन में रहते हैं (किसी से कुछ प्रयोजन नहीं रखते)। सब साधनों का उत्तम फल हमें लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी का दर्शन प्राप्त हुआ॥2॥

 

तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ॥3॥

 

भावार्थ:- (सीता-लक्ष्मण सहित श्री रामदर्शन रूप) उस महान फल का परम फल यह तुम्हारा दर्शन है! प्रयागराज समेत हमारा बड़ा भाग्य है। हे भरत! तुम धन्य हो, तुमने अपने यश से जगत को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनि प्रेम में मग्न हो गए॥3॥

 

सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरषे॥
धन्य धन्य धुनि गगन प्रयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा॥4॥

 

भावार्थ:- भरद्वाज मुनि के वचन सुनकर सभासद् हर्षित हो गए। ‘साधु-साधु’ कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाए। आकाश में और प्रयागराज में ‘धन्य, धन्य’ की ध्वनि सुन-सुनकर भरतजी प्रेम में मग्न हो रहे हैं॥4॥

 

दोहा :

पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन॥210॥

 

भावार्थ:- भरतजी का शरीर पुलकित है, हृदय में श्री सीता-रामजी हैं और कमल के समान नेत्र (प्रेमाश्रु के) जल से भरे हैं। वे मुनियों की मंडली को प्रणाम करके गद्गद वचन बोले-॥210॥

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