अयोध्याकाण्ड दोहा 213
चौपाई :
सुनि मुनि बचन भरत हियँ सोचू। भयउ कुअवसर कठिन सँकोचू॥
जानि गुरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी॥1॥
भावार्थ:- मुनि के वचन सुनकर भरत के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! फिर गुरुजनों की वाणी को महत्वपूर्ण (आदरणीय) समझकर, चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोले-॥1॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरम यहु नाथ हमारा॥
भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए॥2॥
भावार्थ:- हे नाथ! आपकी आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरतजी के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे। उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया॥2॥
चाहिअ कीन्हि भरत पहुनाई। कंद मूल फल आनहु जाई।
भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए॥3॥
भावार्थ:- (और कहा कि) भरत की पहुनाई करनी चाहिए। जाकर कंद, मूल और फल लाओ। उन्होंने ‘हे नाथ! बहुत अच्छा’ कहकर सिर नवाया और तब वे बड़े आनंदित होकर अपने-अपने काम को चल दिए॥3॥
मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेवता। तसि पूजा चाहिअ जस देवता॥
सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं। आयसु होइ सो करहिं गोसाईं॥4॥
भावार्थ:- मुनि को चिंता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिए। यह सुनकर ऋद्धियाँ और अणिमादि सिद्धियाँ आ गईं (और बोलीं-) हे गोसाईं! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें॥4॥
दोहा :
राम बिरह ब्याकुल भरतु सानुज सहित समाज।
पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज॥213॥
भावार्थ:- मुनिराज ने प्रसन्न होकर कहा- छोटे भाई शत्रुघ्न और समाज सहित भरतजी श्री रामचन्द्रजी के विरह में व्याकुल हैं, इनकी पहुनाई (आतिथ्य सत्कार) करके इनके श्रम को दूर करो॥213॥
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