अरण्यकाण्ड दोहा 39
चौपाई :
गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई॥1॥
भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रामचंद्रजी गुणातीत (तीनों गुणों से परे), चराचर जगत् के स्वामी और सबके अंतर की जानने वाले हैं। (उपर्युक्त बातें कहकर) उन्होंने कामी लोगों की दीनता (बेबसी) दिखलाई है और धीर (विवेकी) पुरुषों के मन में वैराग्य को दृढ़ किया है॥1॥
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया॥
सो नर इंद्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला॥2॥
भावार्थ:- क्रोध, काम, लोभ, मद और माया- ये सभी श्री रामजी की दया से छूट जाते हैं। वह नट (नटराज भगवान्) जिस पर प्रसन्न होता है, वह मनुष्य इंद्रजाल (माया) में नहीं भूलता॥2॥
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा॥3॥
भावार्थ:- हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न (की भाँति झूठा) है। फिर प्रभु श्री रामजी पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए॥3॥
संत हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा॥4॥
भावार्थ:- उसका जल संतों के हृदय जैसा निर्मल है। मन को हरने वाले सुंदर चार घाट बँधे हुए हैं। भाँति-भाँति के पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहे हैं। मानो उदार दानी पुरुषों के घर याचकों की भीड़ लगी हो!॥4॥
दोहा :
पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म॥39 क॥
भावार्थ:- घनी पुरइनों (कमल के पत्तों) की आड़ में जल का जल्दी पता नहीं मिलता। जैसे माया से ढँके रहने के कारण निर्गुण ब्रह्म नहीं दिखता॥39 (क)॥
सुखी मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं॥39 ख॥
भावार्थ:- उस सरोवर के अत्यंत अथाह जल में सब मछलियाँ सदा एकरस (एक समान) सुखी रहती हैं। जैसे धर्मशील पुरुषों के सब दिन सुखपूर्वक बीतते हैं॥39 (ख)॥
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