Home / Articles / Aranyakand / अरण्यकाण्ड दोहा 42

अरण्यकाण्ड दोहा 42


चौपाई :

सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी॥1॥

 

भावार्थ:- हे स्वभाव से ही उदार श्री रघुनाथजी! सुनिए। आप सुंदर अगम और सुगम वर के देने वाले हैं। हे स्वामी! मैं एक वर माँगता हूँ, वह मुझे दीजिए, यद्यपि आप अंतर्यामी होने के नाते सब जानते ही हैं॥1॥

 

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥2॥

 

भावार्थ:- (श्री रामजी ने कहा-) हे मुनि! तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो। क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव करता हूँ? मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है, जिसे हे मुनिश्रेष्ठ! तुम नहीं माँग सकते?॥2॥

 

जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें॥
तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥3॥

 

भावार्थ:- मुझे भक्त के लिए कुछ भी अदेय नहीं है। ऐसा विश्वास भूलकर भी मत छोड़ो। तब नारदजी हर्षित होकर बोले- मैं ऐसा वर माँगता हूँ, यह धृष्टता करता हूँ-॥3॥

 

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥

 

भावार्थ:- यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढ़कर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो॥4॥

 

दोहा :

राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम।
अपर नाम उडगन बिमल बसहुँ भगत उर ब्योम॥42 क॥

 

भावार्थ:- आपकी भक्ति पूर्णिमा की रात्रि है, उसमें ‘राम’ नाम यही पूर्ण चंद्रमा होकर और अन्य सब नाम तारागण होकर भक्तों के हृदय रूपी निर्मल आकाश में निवास करें॥42 (क)॥

 

एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ।
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ॥42 ख॥

 

भावार्थ:- कृपा सागर श्री रघुनाथजी ने मुनि से ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहा। तब नारदजी ने मन में अत्यंत हर्षित होकर प्रभु के चरणों में मस्तक नवाया॥42 (ख)॥

This article is filed under: Aranyakand

Next Articles

(1) अरण्यकाण्ड दोहा 43
(2) अरण्यकाण्ड दोहा 44
(3) अरण्यकाण्ड दोहा 45
(4) अरण्यकाण्ड दोहा 46

Comments

Login or register to add Comments.

No comment yet. Be the first to comment on this article.