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अयोध्याकाण्ड दोहा 211


चौपाई :

मुनि समाजु अरु तीरथराजू। साँचिहुँ सपथ अघाइ अकाजू॥
एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि सम अधिक न अघ अधमाई॥1॥

 

भावार्थ:- मुनियों का समाज है और फिर तीर्थराज है। यहाँ सच्ची सौगंध खाने से भी भरपूर हानि होती है। इस स्थान में यदि कुछ बनाकर कहा जाए, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और नीचता न होगी॥1॥

 

तुम्ह सर्बग्य कहउँ सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ॥
मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखु जियँ जगु जानिहि पोचू॥2॥

 

भावार्थ:- मैं सच्चे भाव से कहता हूँ। आप सर्वज्ञ हैं और श्री रघुनाथजी हृदय के भीतर की जानने वाले हैं (मैं कुछ भी असत्य कहूँगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता)। मुझे माता कैकेयी की करनी का कुछ भी सोच नहीं है और न मेरे मन में इसी बात का दुःख है कि जगत मुझे नीच समझेगा॥2॥

 

नाहिन डरु बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू॥
सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए॥3॥

 

भावार्थ:- न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड़ जाएगा और न पिताजी के मरने का ही मुझे शोक है, क्योंकि उनका सुंदर पुण्य और सुयश विश्व भर में सुशोभित है। उन्होंने श्री राम-लक्ष्मण सरीखे पुत्र पाए॥3॥

 

राम बिरहँ तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू॥
राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेष फिरहिं बन बनहीं॥4॥

 

भावार्थ:- फिर जिन्होंने श्री रामचन्द्रजी के विरह में अपने क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजा के लिए सोच करने का कौन प्रसंग है? (सोच इसी बात का है कि) श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी पैरों में बिना जूती के मुनियों का वेष बनाए वन-वन में फिरते हैं॥4॥

 

दोहा :

अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरषा बात॥211॥

 

भावार्थ:- वे वल्कल वस्त्र पहनते हैं, फलों का भोजन करते हैं, पृथ्वी पर कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं और वृक्षों के नीचे निवास करके नित्य सर्दी, गर्मी, वर्षा और हवा सहते हैं। 211॥

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