उत्तर काण्ड दोहा 05
चौपाई :
आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा॥
बामदेव बसिष्ट मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥1॥
भावार्थ:- भरतजी के साथ सब लोग आए। श्री रघुवीर के वियोग से सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभु ने वामदेव, वशिष्ठ आदि मुनिश्रेष्ठों को देखा, तो उन्होंने धनुष-बाण पृथ्वी पर रखकर-॥1॥
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह॥
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया॥2॥
भावार्थ:- छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित दौड़कर गुरुजी के चरणकमल पकड़ लिए, उनके रोम-रोम अत्यंत पुलकित हो रहे हैं। मुनिराज वशिष्ठजी ने (उठाकर) उन्हें गले लगाकर कुशल पूछी। (प्रभु ने कहा-) आप ही की दया में हमारी कुशल है॥2॥
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा॥
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज॥3॥
भावार्थ:- धर्म की धुरी धारण करने वाले रघुकुल के स्वामी श्री रामजी ने सब ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें मस्तक नवाया। फिर भरतजी ने प्रभु के वे चरणकमल पकड़े जिन्हें देवता, मुनि, शंकरजी और ब्रह्माजी (भी) नमस्कार करते हैं॥3॥
परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए॥
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े॥4॥
भावार्थ:- भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं, उठाए उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्री रामजी ने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। (उनके) साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए। नवीन कमल के समान नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं के) जल की बाढ़ आ गई॥4॥
छंद :
राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी॥
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही॥1॥
भावार्थ:- कमल के समान नेत्रों से जल बह रहा है। सुंदर शरीर में पुलकावली (अत्यंत) शोभा दे रही है। त्रिलोकी के स्वामी प्रभु श्री रामजी छोटे भाई भरतजी को अत्यंत प्रेम से हृदय से लगाकर मिले। भाई से मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं, उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती। मानो प्रेम और श्रृंगार शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त हुए॥1॥
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई॥
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो॥2॥
भावार्थ:- कृपानिधान श्री रामजी भरतजी से कुशल पूछते हैं, परंतु आनंदवश भरतजी के मुख से वचन शीघ्र नहीं निकलते। (शिवजी ने कहा-) हे पार्वती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजी को मिल रहा था) वचन और मन से परे है, उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरतजी ने कहा-) हे कोसलनाथ! आपने आर्त्त (दुःखी) जानकर दास को दर्शन दिए, इससे अब कुशल है। विरह समुद्र में डूबते हुए मुझको कृपानिधान ने हाथ पकड़कर बचा लिया!॥2॥
दोहा :
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥5॥
भावार्थ:- फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले॥।5॥
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