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बालकांड दोहा 314


चौपाई :

सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥

 

भावार्थ:- देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानों पर जा चढ़े॥1॥

 

प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥

 

भावार्थ:- और प्रेम से पुलकित शरीर हो तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री रामचन्द्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे॥2॥

 

चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥

 

भावार्थ:- विचित्र मंडप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री-पुरुष रूप के भंडार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं॥3॥

 

तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥

 

भावार्थ:- उन्हें देखकर सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गए जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ, क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥4॥

 

दोहा :

सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥

 

भावार्थ:- तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान की महामहिमामयी निजशक्ति) श्री सीताजी का और (अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात्‌ भगवान) श्री रामचन्द्रजी का विवाह है॥314॥

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