Home / Articles / Balkand / बालकांड दोहा 224

बालकांड दोहा 224


चौपाई :

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥

भावार्थ:- दोनों भाई नगर के पूरब ओर गए, जहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रंग) भूमि बनाई गई थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिस पर सुंदर और निर्मल वेदी सजाई गई थी॥1॥

चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा॥2॥

भावार्थ:- चारों ओर सोने के बड़े-बड़े मंच बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मंडलाकार घेरा सुशोभित था॥2॥

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3॥

भावार्थ:- वह कुछ ऊँचा था और सब प्रकार से सुंदर था, जहाँ जाकर नगर के लोग बैठेंगे। उन्हीं के पास विशाल एवं सुंदर सफेद मकान अनेक रंगों के बनाए गए हैं॥3॥

जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4॥

भावार्थ:- जहाँ अपने-अपने कुल के अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर देखेंगी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को (यज्ञशाला की) रचना दिखला रहे हैं॥4॥

दोहा :

सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥

भावार्थ:- सब बालक इसी बहाने प्रेम के वश में होकर श्री रामजी के मनोहर अंगों को छूकर शरीर से पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयों को देख-देखकर उनके हृदय में अत्यन्त हर्ष हो रहा है॥224॥

This article is filed under: Balkand

Next Articles

(1) बालकांड दोहा 225
(2) बालकांड दोहा 226
(3) बालकांड दोहा 227
(4) बालकांड दोहा 228
(5) बालकांड दोहा 229

Comments

Login or register to add Comments.

No comment yet. Be the first to comment on this article.