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अयोध्याकाण्ड दोहा 85


चौपाई :

रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥
करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥1॥

 

भावार्थ:- प्रजा को प्रेमवश देखकर श्री रघुनाथजी के दयालु हृदय में बड़ा दुःख हुआ। प्रभु श्री रघुनाथजी करुणामय हैं। पराई पीड़ा को वे तुरंत पा जाते हैं (अर्थात दूसरे का दुःख देखकर वे तुरंत स्वयं दुःखित हो जाते हैं)॥1॥

 

कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए॥
किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥2॥

 

भावार्थ:- प्रेमयुक्त कोमल और सुंदर वचन कहकर श्री रामजी ने बहुत प्रकार से लोगों को समझाया और बहुतेरे धर्म संबंधी उपदेश दिए, परन्तु प्रेमवश लोग लौटाए लौटते नहीं॥2॥

 

सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई॥
लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई॥3॥

 

भावार्थ:- शील और स्नेह छोड़ा नहीं जाता। श्री रघुनाथजी असमंजस के अधीन हो गए (दुविधा में पड़ गए)। शोक और परिश्रम (थकावट) के मारे लोग सो गए और कुछ देवताओं की माया से भी उनकी बुद्धि मोहित हो गई॥3॥

 

जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥
खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥4॥

 

भावार्थ:- जब दो पहर बीत गई, तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक मंत्री सुमंत्र से कहा- हे तात! रथ के खोज मारकर (अर्थात पहियों के चिह्नों से दिशा का पता न चले इस प्रकार) रथ को हाँकिए। और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी॥4॥

दोहा :

राम लखन सिय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ।
सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥85॥

 

भावार्थ:- शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथ पर सवार हुए। मंत्री ने तुरंत ही रथ को इधर-उधर खोज छिपाकर चला दिया॥85॥

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