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अयोध्याकाण्ड दोहा 237


चौपाई :

तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥
नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥

 

भावार्थ:- तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरजी से कहने लगा- हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं,॥1॥

 

जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥
नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥2॥

 

भावार्थ:- जिन श्रेष्ठ वृक्षों के बीच में एक सुंदर विशाल बड़ का वृक्ष सुशोभित है, जिसको देखकर मन मोहित हो जाता है, उसके पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं। उसकी घनी छाया सब ऋतुओं में सुख देने वाली है॥2॥

 

मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी। बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥
ए तरु सरित समीप गोसाँई। रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥3॥

 

भावार्थ:- मानो ब्रह्माजी ने परम शोभा को एकत्र करके अंधकार और लालिमामयी राशि सी रच दी है। हे गुसाईं! ये वृक्ष नदी के समीप हैं, जहाँ श्री राम की पर्णकुटी छाई है॥3॥

 

तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए। कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेदिका बनाई। सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥4॥

 

भावार्थ:- वहाँ तुलसीजी के बहुत से सुंदर वृक्ष सुशोभित हैं, जो कहीं-कहीं सीताजी ने और कहीं लक्ष्मणजी ने लगाए हैं। इसी बड़ की छाया में सीताजी ने अपने करकमलों से सुंदर वेदी बनाई है॥4॥

 

दोहा :

जहाँ बैठि मुनिगन सहित नित सिय रामु सुजान।
सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान॥237॥

 

भावार्थ:- जहाँ सुजान श्री सीता-रामजी मुनियों के वृन्द समेत बैठकर नित्य शास्त्र, वेद और पुराणों के सब कथा-इतिहास सुनते हैं॥237॥

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