अयोध्याकाण्ड दोहा 192
चौपाई :
राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे॥
जीवन पाउ न पाछें धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं॥1॥
भावार्थ:- हे नाथ! श्री रामचन्द्रजी के प्रताप से और आपके बल से हम लोग भरत की सेना को बिना वीर और बिना घोड़े की कर देंगे (एक-एक वीर और एक-एक घोड़े को मार डालेंगे)। जीते जी पीछे पाँव न रखेंगे। पृथ्वी को रुण्ड-मुण्डमयी कर देंगे (सिरों और धड़ों से छा देंगे)॥1॥
दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू॥
एतना कहत छींक भइ बाँए। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए॥2॥
भावार्थ:- निषादराज ने वीरों का बढ़िया दल देखकर कहा- जुझारू (लड़ाई का) ढोल बजाओ। इतना कहते ही बाईं ओर छींक हुई। शकुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुंदर हैं (जीत होगी)॥2॥
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी। भरतहि मिलिअ न होइहि रारी॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं॥3॥
भावार्थ:- एक बूढ़े ने शकुन विचारकर कहा- भरत से मिल लीजिए, उनसे लड़ाई नहीं होगी। भरत श्री रामचन्द्रजी को मनाने जा रहे हैं। शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है॥3॥
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें॥4॥
भावार्थ:- यह सुनकर निषादराज गुहने कहा- बूढ़ा ठीक कह रहा है। जल्दी में (बिना विचारे) कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं। भरतजी का शील स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करने में हित की बहुत बड़ी हानि है॥4॥
दोहा :
गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ॥192॥
भावार्थ:- अतएव हे वीरों! तुम लोग इकट्ठे होकर सब घाटों को रोक लो, मैं जाकर भरतजी से मिलकर उनका भेद लेता हूँ। उनका भाव मित्र का है या शत्रु का या उदासीन का, यह जानकर तब आकर वैसा (उसी के अनुसार) प्रबंध करूँगा॥192॥
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