अयोध्याकाण्ड दोहा 135
चौपाई :
यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥
कंद मूल फल भरि भरि दोना। चले रंक जनु लूटन सोना॥1॥
भावार्थ:- यह (श्री रामजी के आगमन का) समाचार जब कोल-भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियाँ उनके घर ही पर आ गई हों। वे दोनों में कंद, मूल, फल भर-भरकर चले, मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों॥1॥
तिन्ह महँ जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहि पूँछहिं मगु जाता॥
कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हि देखे रघुराई॥2॥
भावार्थ:- उनमें से जो दोनों भाइयों को (पहले) देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी की सुंदरता कहते-सुनते सबने आकर श्री रघुनाथजी के दर्शन किए॥2॥
करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहि बिलोकहिं अति अनुरागे॥
चित्र लिखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े॥3॥
भावार्थ:- भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यन्त अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहाँ के तहाँ मानो चित्र लिखे से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है॥3॥
राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने॥
प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिंकर जोरी॥4॥
भावार्थ:- श्री रामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार-बार प्रभु श्री रामचन्द्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनीत वचन कहते हैं-॥4॥
दोहा :
अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय।
भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय॥135॥
भावार्थ:- हे नाथ! प्रभु (आप) के चरणों का दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गए। हे कोसलराज! हमारे ही भाग्य से आपका यहाँ शुभागमन हुआ है॥135॥
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