अयोध्याकाण्ड दोहा 111
चौपाई :
राम सप्रेम पुलकि उर लावा। परम रंक जनु पारसु पावा॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ। मिलत धरें तन कह सबु कोऊ॥1॥
भावार्थ:- श्री रामजी ने प्रेमपूर्वक पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया। (उसे इतना आनंद हुआ) मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो। सब कोई (देखने वाले) कहने लगे कि मानो प्रेम और परमार्थ (परम तत्व) दोनों शरीर धारण करके मिल रहे हैं॥1॥
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा। लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा। जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा॥2॥
भावार्थ:- फिर वह लक्ष्मणजी के चरणों लगा। उन्होंने प्रेम से उमंगकर उसको उठा लिया। फिर उसने सीताजी की चरण धूलि को अपने सिर पर धारण किया। माता सीताजी ने भी उसको अपना बच्चा जानकर आशीर्वाद दिया॥2॥
कीन्ह निषाद दंडवत तेही। मिलेउ मुदित लखि राम सनेही॥
पिअत नयन पुट रूपु पियुषा। मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा॥3॥
भावार्थ:- फिर निषादराज ने उसको दण्डवत की। श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी जानकर वह उस (निषाद) से आनंदित होकर मिला। वह तपस्वी अपने नेत्र रूपी दोनों से श्री रामजी की सौंदर्य सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुंदर भोजन पाकर आनंदित होता है॥3॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥
राम लखन सिय रूपु निहारी। होहिं सनेह बिकल नर नारी॥4॥
भावार्थ:- (इधर गाँव की स्त्रियाँ कह रही हैं) हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है। श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देखकर सब स्त्री-पुरुष स्नेह से व्याकुल हो जाते हैं॥4॥
दोहा :
तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह।।
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेइँ कीन्ह॥111॥
भावार्थ:- तब श्री रामचन्द्रजी ने सखा गुह को अनेकों तरह से (घर लौट जाने के लिए) समझाया। श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसने अपने घर को गमन किया॥111॥
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