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अयोध्याकांड दोहा 10


चौपाई :

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥1॥

 

भावार्थ:-  श्री रामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का बखान कर, मुनिराज प्रेम से पुलकित होकर बोले- (हे रामचन्द्रजी!) राजा (दशरथजी) ने राज्याभिषेक की तैयारी की है। वे आपको युवराज पद देना चाहते हैं॥1॥

 

राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ। राम हृदयँ अस बिसमउ भयऊ॥2॥

 

भावार्थ:- (इसलिए) हे रामजी! आज आप (उपवास, हवन आदि विधिपूर्वक) सब संयम कीजिए, जिससे विधाता कुशलपूर्वक इस काम को निबाह दें (सफल कर दें)। गुरुजी शिक्षा देकर राजा दशरथजी के पास चले गए। श्री रामचन्द्रजी के हृदय में (यह सुनकर) इस बात का खेद हुआ कि-॥2॥

 

जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा॥3॥

 

भावार्थ:- हम सब भाई एक ही साथ जन्मे, खाना, सोना, लड़कपन के खेल-कूद, कनछेदन, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ-साथ ही हुए॥3॥

 

बिमल बंस यहु अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥4॥

 

भावार्थ:- पर इस निर्मल वंश में यही एक अनुचित बात हो रही है कि और सब भाइयों को छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही (मेरा ही) होता है। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) प्रभु श्री रामचन्द्रजी का यह सुंदर प्रेमपूर्ण पछतावा भक्तों के मन की कुटिलता को हरण करे॥4॥

 

दोहा :

तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥10॥

 

भावार्थ:- उसी समय प्रेम और आनंद में मग्न लक्ष्मणजी आए। रघुकुल रूपी कुमुद के खिलाने वाले चन्द्रमा श्री रामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया॥10॥

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