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अयोध्याकाण्ड दोहा 289


चौपाई :

अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी॥
भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहिं बखानी॥1॥

 

भावार्थ:- हे श्रेष्ठ वर्णवाली! भरतजी की महिमा का वर्णन करना सभी के लिए वैसे ही अगम है जैसे जलरहित पृथ्वी पर मछली का चलना। हे रानी! सुनो, भरतजी की अपरिमित महिमा को एक श्री रामचन्द्रजी ही जानते हैं, किन्तु वे भी उसका वर्णन नहीं कर सकते॥1॥

 

बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जिय की रुचि लखि कह राऊ॥
बहुरहिं लखनु भरतु बन जाहीं। सब कर भल सब के मन माहीं॥2॥

 

भावार्थ:- इस प्रकार प्रेमपूर्वक भरतजी के प्रभाव का वर्णन करके, फिर पत्नी के मन की रुचि जानकर राजा ने कहा- लक्ष्मणजी लौट जाएँ और भरतजी वन को जाएँ, इसमें सभी का भला है और यही सबके मन में है॥2॥

 

देबि परन्तु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥
भरतु अवधि सनेह ममता की। जद्यपि रामु सीम समता की॥3॥

 

भावार्थ:- परन्तु हे देवि! भरतजी और श्री रामचन्द्रजी का प्रेम और एक-दूसरे पर विश्वास, बुद्धि और विचार की सीमा में नहीं आ सकता। यद्यपि श्री रामचन्द्रजी समता की सीमा हैं, तथापि भरतजी प्रेम और ममता की सीमा हैं॥3॥

 

परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे॥
साधन सिद्धि राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू॥4॥

 

भावार्थ:- (श्री रामचन्द्रजी के प्रति अनन्य प्रेम को छोड़कर) भरतजी ने समस्त परमार्थ, स्वार्थ और सुखों की ओर स्वप्न में भी मन से भी नहीं ताका है। श्री रामजी के चरणों का प्रेम ही उनका साधन है और वही सिद्धि है। मुझे तो भरतजी का बस, यही एक मात्र सिद्धांत जान पड़ता है॥4॥

 

दोहा :

भोरेहुँ भरत न पेलिहहिं मनसहुँ राम रजाइ।
करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ॥289॥

 

भावार्थ:- राजा ने बिलखकर (प्रेम से गद्गद होकर) कहा- भरतजी भूलकर भी श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा को मन से भी नहीं टालेंगे। अतः स्नेह के वश होकर चिंता नहीं करनी चाहिए॥289॥

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