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अयोध्याकांड दोहा 170


चौपाई :

नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा॥
गाहि पदभरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी॥1॥

 

भावार्थ:- वेदों में बताई हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम विचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा (अर्थात प्रार्थना करके उनको सती होने से रोक लिया)। वे रानियाँ भी (श्री राम के) दर्शन की अभिलाषा से रह गईं॥1॥

 

चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए॥
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई॥2॥

 

भावार्थ:- चंदन और अगर के तथा और भी अनेकों प्रकार के अपार (कपूर, गुग्गुल, केसर आदि) सुगंध द्रव्यों के बहुत से बोझ आए। सरयूजी के तट पर सुंदर चिता रचकर बनाई गई, (जो ऐसी मालूम होती थी) मानो स्वर्ग की सुंदर सीढ़ी हो॥2॥

 

एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही॥
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना॥3॥

 

भावार्थ:- इस प्रकार सब दाह क्रिया की गई और सबने विधिपूर्वक स्नान करके तिलांजलि दी। फिर वेद, स्मृति और पुराण सबका मत निश्चय करके उसके अनुसार भरतजी ने पिता का दशगात्र विधान (दस दिनों के कृत्य) किया॥3॥

 

जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा॥
भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना॥4॥

 

भावार्थ:- मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी ने जहाँ जैसी आज्ञा दी, वहाँ भरतजी ने सब वैसा ही हजारों प्रकार से किया। शुद्ध हो जाने पर (विधिपूर्वक) सब दान दिए। गायें तथा घोड़े, हाथी आदि अनेक प्रकार की सवारियाँ,॥4॥

 

दोहा :

सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम॥170॥

 

भावार्थ:- सिंहासन, गहने, कपड़े, अन्न, पृथ्वी, धन और मकान भरतजी ने दिए, भूदेव ब्राह्मण दान पाकर परिपूर्णकाम हो गए (अर्थात उनकी सारी मनोकामनाएँ अच्छी तरह से पूरी हो गईं)॥170॥

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