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सुंदरकांड की शुरुआत - श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसपञ्चम सोपानश्री सुन्दर काण्डश्लोक :  शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदंब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।रामाख्यं जगदीश्वरं सुरग  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥भावार्थ:-जाम्बवान्‌ के सुंदर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल ख  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥भावार्थ:- देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्हों  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 03

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चौपाई : निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥भावार्थ:- समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जं  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 04

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चौपाई :मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥भावार्थ:- हनुमान्‌जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥भावार्थ:- अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥भावार्थ:- लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥भावार्थ:- (विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥भावार्थ:- जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥भावार्थ:- हनुमान्‌जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत स  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥भावार्थ:- सीता! तूने मेरा अपनाम किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा। नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले।   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥भावार्थ:- उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचंद्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थ  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥भावार्थ:- सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर॥चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥भावार्थ:- तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 14

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चौपाई :हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥भावार्थ:- भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यंत गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यंत पुल  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 15

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चौपाई :कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥1॥भावार्थ:- (हनुमान्‌जी बोले-) श्री रामचंद्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 16

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चौपाई :जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई॥राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेन  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 17

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चौपाई :मन संतोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥भावार्थ:- भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्‌जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने श्री रामजी के प्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 18

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चौपाई :चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥भावार्थ:- वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए। फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहाँ बहुत से योद्धा रखवाले थे। उनम  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 19

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चौपाई :सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥भावार्थ:- पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान्‌ मेघनाद को भेजा। (उससे कहा कि-) हे पुत्र! मार  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 20

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चौपाई :ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा॥तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥भावार्थ:- उसने हनुमान्‌जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिरपड़े), परंतु गिरते समय भी उन्होंने   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 21

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चौपाई :कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही॥1॥भावार्थ:- लंकापति रावण ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे (मेरा ना  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 22

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चौपाई :जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥1॥भावार्थ:- मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 23

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चौपाई :राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥1॥भावार्थ:- तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 24

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चौपाई :जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥1॥भावार्थ:- यद्यपि हनुमान्‌जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान्‌ अभिमा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 25

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चौपाई :पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥भावार्थ:- जब बिना पूँछ का यह बंदर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा। जिनकी इसने बह  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 26

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चौपाई :देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥भावार्थ:- देह बड़ी विशाल, परंतु बहुत ही हल्की (फुर्तीली) है। वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं। नगर जल रहा है लोग बेहाल हो   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 27

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चौपाई :मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥भावार्थ:- (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्रीरघुनाथजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूड़ामणि   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 28

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चौपाई :चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥भावार्थ:- चलते समय उन्होंने महाध्वनि से भारी गर्जन किया, जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे।  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 29

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चौपाई :जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि काई॥एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥भावार्थ:- यदि सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन में विचार कर ही रहे थे कि समा  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 30

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चौपाई :जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥भावार्थ:- जाम्बवान्‌ ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरंतर कुशल है। देवता,   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 31

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चौपाई :चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥भावार्थ:- चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी। श्री रघुनाथजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। (हनुमान्‌जी ने फिर क  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 32

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चौपाई :सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥भावार्थ:- सीताजी का दुःख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले-) मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही ग  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 33

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चौपाई :बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥भावार्थ:- प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु प्रेम में डूबे हुए हनुमान्‌जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 34

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चौपाई :नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान्‌जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी!  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 35

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चौपाई :प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥भावार्थ:- वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्री रामजी ने वानरों की सारी से  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 36

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चौपाई :उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।1॥भावार्थ:- वहाँ (लंका में) जब से हनुमान्‌जी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 37

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चौपाई :श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥भावार्थ:- मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा (और बोला-) स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 38

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चौपाई :सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥भावार्थ:- रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है। मंत्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं। (इसी समय) अवसर जानकर   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 39

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चौपाई :तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥1॥भावार्थ:- हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (संपूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 40

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चौपाई :माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥1॥भावार्थ:- माल्यवान्‌ नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री था। उसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना (और कहा-) हे तात! आप  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 41

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चौपाई :बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥1॥भावार्थ:- विभीषण ने पंडितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी से नीति बखानकर कही। पर उसे सुनते ही रावण क्रोधि  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 42

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चौपाई :अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥भावार्थ:- ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! स  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 43

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चौपाई :ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचंद्रजी की सेना थी) आ गए। वानर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 44

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चौपाई :कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥भावार्थ:- जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहींत्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 45

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चौपाई :सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥1॥भावार्थ:- विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनंद का दान देने व  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 46

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चौपाई :अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥भावार्थ:- प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दंडवत्‌ करते देखा तो वे अत्यंत हर्षित होकर तुरंत उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 47

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चौपाई :तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥भावार्थ:- लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 48

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चौपाई :सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥भावार्थ:- (श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती है  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 49

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चौपाई :सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥भावार्थ:- हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अंदर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय हो। श्री रामजी के वचन   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 50

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चौपाई :अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥भावार्थ:- ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग-पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानक  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 51

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चौपाई :सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥भावार्थ:- (श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 52

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चौपाई :प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥भावार्थ:- फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यंत प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल   ......

सुंदरकाण्ड दोहा 53

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चौपाई :तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥भावार्थ:- लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरंत ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हु  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 54

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चौपाई :नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥भावार्थ:- (दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 55

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चौपाई :ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥भावार्थ:- ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता ह  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 56

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चौपाई :राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥भावार्थ:- श्री रामचंद्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्र  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 57

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चौपाई :सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥भावार्थ:- पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 58

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चौपाई :लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥भावार्थ:- हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंज  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 59

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चौपाई :सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥भावार्थ:- समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और  ......

सुंदरकाण्ड दोहा 60

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चौपाई :नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥भावार्थ:-  (समुद्र ने कहा)) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्प  ......

बालकाण्ड शुरुआत श्लोक

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श्रीगणेशायनमःश्रीजानकीवल्लभो विजयतेश्रीरामचरितमानसप्रथम  सोपानश्री बालकाण्डश्लोक :वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥भावार्थ:- अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मंगलों क  ......

बालकाण्ड शुरुआत सोरठा

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सोरठा :जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥भावार्थ:- जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श  ......

बालकाण्ड दोहा 01

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चौपाई :बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥ भावार्थ:- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है  ......

बालकाण्ड दोहा 02

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चौपाई :गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥ भावार्थ:- श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अं  ......

बालकाण्ड दोहा 03

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चौपाई :मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥1॥ भावार्थ:- इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न कर  ......

बालकाण्ड दोहा 04

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चौपाई :बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥ भावार्थ:- अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण क  ......

बालकाण्ड दोहा 05

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चौपाई :मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥ भावार्थ:- मैंने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेंगे। कौओं को बड़े प्रेम से पालिए, परन्तु   ......

बालकाण्ड दोहा 06

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चौपाई :खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥ भावार्थ:- दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण औ  ......

बालकाण्ड दोहा 07

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चौपाई :अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥ भावार्थ:- विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोड़कर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और   ......

बालकाण्ड दोहा 08

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चौपाई :आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥ भावार्थ:- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए   ......

बालकाण्ड दोहा 09

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चौपाई :खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥1॥ भावार्थ:- किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को औ  ......

बालकाण्ड दोहा 10

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चौपाई :एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥ भावार्थ:- इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हर  ......

बालकाण्ड दोहा 11

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चौपाई :मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥ भावार्थ:- मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और   ......

बालकाण्ड दोहा 12

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चौपाई :जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥1॥ भावार्थ:- जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो क  ......

बालकाण्ड दोहा 13

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चौपाई :सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥1॥ भावार्थ:- यद्यपि प्रभु श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वे  ......

बालकाण्ड दोहा 14

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चौपाई :एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥ब्यास आदि कबि पुंगव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥ भावार्थ:- इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि  ......

बालकाण्ड दोहा 15

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चौपाई :पुनि बंदउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥ भावार्थ:- फिर मैं सरस्वती और देवनदी गंगाजी की वंदना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गंगाजी) स्नान करने और   ......

बालकाण्ड दोहा 16

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चौपाई :बंदउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥1॥ भावार्थ:- मैं अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली श्री सरयू नदी की वन्दना करता हूँ। फ  ......

बालकाण्ड दोहा 17

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चौपाई :प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥ भावार्थ:- मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भ  ......

बालकाण्ड दोहा 18

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चौपाई :कपिपति रीछ निसाचर राजा। अंगदादि जे कीस समाजा॥बंदउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥ भावार्थ:- वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जाम्बवानजी, राक्षसों के राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरों का समाज है, सब  ......

बालकाण्ड दोहा 19

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चौपाई :बंदउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥ भावार्थ:- मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वंदना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्  ......

बालकाण्ड दोहा 20

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चौपाई :आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥1॥ भावार्थ:- दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और   ......

बालकाण्ड दोहा 21

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चौपाई :समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥भावार्थ:- समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात्‌ नाम और न  ......

बालकांड दोहा 22

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चौपाई :नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥1॥भावार्थ:- ब्रह्मा के बनाए हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान्‌ मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही ज  ......

बालकांड दोहा 23

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चौपाई :अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥1॥भावार्थ:- निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में ना  ......

बालकांड दोहा 24

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चौपाई :राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया, परन्तु भक्तगण  ......

बालकांड दोहा 25

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चौपाई :राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥1॥भावार्थ:- श्री रामजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं, परन्तु नाम ने अनेक गरीबों पर कृपा की है। न  ......

बालकांड दोहा 26

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चौपाई :नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥1॥भावार्थ:- नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेष वाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध,   ......

बालकांड दोहा 27

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चौपाई :चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥1॥भावार्थ:- (केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद,  ......

बालकांड दोहा 28

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चौपाई :भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥॥भावार्थ:- अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होत  ......

बालकांड दोहा 29

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चौपाई :अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥1॥भावार्थ:- यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड़ ली है (अर्थात नरक में भी मेरे लिए  ......

बालकांड दोहा 30

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चौपाई :जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥भावार्थ:- मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा, सब सज्ज  ......

बालकांड दोहा 31

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चौपाई :तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥भावार्थ:- तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जि  ......

बालकांड दोहा 32

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चौपाई :रामचरित चिंतामति चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी का चरित्र सुंदर चिन्तामणि है और संतों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का सुंदर श्रंगार है। श्री रा  ......

बालकांड दोहा 33

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चौपाई :कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥1॥भावार्थ:- जिस प्रकार श्री पार्वतीजी ने श्री शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्री शिवजी ने विस्तार से उसका उत्  ......

बालकांड दोहा 34

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चौपाई :एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार सब संदेहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोड़कर सबकी व  ......

बालकांड दोहा 35

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चौपाई : दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥भावार्थ:- वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी म  ......

बालकांड दोहा 36

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चौपाई :संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥भावार्थ:- श्री शिवजी की कृपा से उसके हृदय में सुंदर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्री रामचरित मानस का कवि   ......

बालकांड दोहा 37

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चौपाई :सप्त प्रबंध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥1॥भावार्थ:- सात काण्ड ही इस मानस सरोवर की सुंदर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञान रूपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है।   ......

बालकांड दोहा 38

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चौपाई :जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥1॥भावार्थ:- जो लोग इस चरित्र को सावधानी से गाते हैं, वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक इसे सुन  ......

बालकांड दोहा 39

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चौपाई :जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुड़ाई होई॥जड़ता जाड़ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥भावार्थ:- यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नींद रूपी ज़ूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूप  ......

बालकांड दोहा 40

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चौपाई :रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥भावार्थ:- सुंदर कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रामजी के युद्ध का  ......

बालकांड दोहा 41

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चौपाई :सीय स्वयंबर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥भावार्थ:- श्री सीताजी के स्वयंवर की जो सुन्दर कथा है, वह इस नदी में सुहावनी छबि छा रही है। अनेकों सुंदर विचारपूर्ण प्रश्न ही इ  ......

बालकांड दोहा 42

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चौपाई :कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥भावार्थ:- यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यंत पवित्र है। इसमें शिव-पार्व  ......

बालकांड दोहा 43

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चौपाई :आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥भावार्थ:- मेरा आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुंदर और निर्मल जल का कम हलकापन नहीं है (अर्थात्‌ अत्यंत हलकापन है)। यह जल बड़ा ही अनोखा है  ......

बालकांड दोहा 44

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चौपाई :भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥भावार्थ:- भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन  ......

बालकांड दोहा 45

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चौपाई :एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥प्रति संबत अति होइ अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा॥1॥भावार्थ:- इसी प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी त  ......

बालकांड दोहा 46

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चौपाई :अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा॥1॥भावार्थ:- यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिए। संतों, पुराणों और उपनि  ......

बालकांड दोहा 47

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चौपाई:जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर याज्ञवल्क्यजी मुस्कु  ......

बालकांड दोहा 48

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चौपाई :एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥भावार्थ:- एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत्‌ के ई  ......

बालकांड दोहा 49

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चौपाई :रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥भावार्थ:- रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं  ......

बालकांड दोहा 50

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चौपाई :संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥भावार्थ:- श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनंद उत्पन्न हुआ। उन शोभा के सम  ......

बालकांड दोहा 51

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चौपाई :बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥भावार्थ:- देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान्‌ हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ   ......

बालकांड दोहा 52

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चौपाई :जौं तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥भावार्थ:- जो तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इस  ......

बालकांड दोहा 53

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चौपाई :लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥भावार्थ:- सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह  ......

बालकांड दोहा 54

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चौपाई :मैं संकर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥भावार्थ:- कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (य  ......

बालकांड दोहा 55

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चौपाई :देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥भावार्थ:- सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव   ......

बालकांड दोहा 56

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चौपाई :सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥भावार्थ:- सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्‌! मैंने कु  ......

बालकांड दोहा 57

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चौपाई :तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥भावार्थ:- तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन   ......

बालकांड दोहा 58

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चौपाई :हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥भावार्थ:- अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन  ......

बालकांड दोहा 59

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चौपाई :नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥भावार्थ:- सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथ  ......

बालकांड दोहा 60

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चौपाई :एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥1॥भावार्थ:- दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजा  ......

बालकांड दोहा 61

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चौपाई :किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥भावार्थ:- (दक्ष का निमन्त्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा औ  ......

बालकांड दोहा 62

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चौपाई :कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥भावार्थ:- शिवजी ने कहा- तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक  ......

बालकांड दोहा 63

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चौपाई :पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥भावार्थ:- भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदर से मि  ......

बालकांड दोहा 64

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चौपाई :सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह संकर निंदा॥सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥भावार्थ:- हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिले  ......

बालकांड दोहा 65

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चौपाई :समाचार सब संकर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥1॥भावार्थ:- ये सब समाचार शिवजी को मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला औ  ......

बालकांड दोहा 66

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चौपाई :सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥1॥भावार्थ:- सारी नदियों में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर छोड  ......

बालकांड दोहा 67

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चौपाई :कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥सुंदर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी॥1॥भावार्थ:- नारद मुनि ने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा- तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुंदर, सुशी  ......

बालकांड दोहा 68

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चौपाई :सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहि उमा हरषानी॥नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥भावार्थ:- नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान्‌ और मैना) को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्  ......

बालकांड दोहा 69

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चौपाई :तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥भावार्थ:- तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसंदेह वैसा ही मिलेगा, जैस  ......

बालकांड दोहा 70

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चौपाई :सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥1॥भावार्थ:- गंगा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवि  ......

बालकांड दोहा 71

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चौपाई :कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥पतिहि एकांत पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥भावार्थ:- यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ!  ......

बालकांड दोहा 72

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चौपाई :अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥भावार्थ:- अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे, जिससे शिवजी मिल जाएँ। दूसरे उपा  ......

बालकांड दोहा 73

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चौपाई :करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥1॥भावार्थ:- हे पार्वती! नारदजी ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता को भी अच्छी लगी है। तप स  ......

बालकांड दोहा 74

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चौपाई :उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥भावार्थ:- प्राणपति (शिवजी) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं। पार्वतीजी का अत्यन्त स  ......

बालकांड दोहा 75

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चौपाई :अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी॥1॥भावार्थ:- हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी क  ......

बालकांड दोहा 76

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चौपाई :कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥1॥भावार्थ:- वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करते थे। यद्यपि सुजा  ......

बालकांड दोहा 77

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चौपाई :कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥भावार्थ:- शिवजी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि   ......

बालकांड दोहा 78

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चौपाई :रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥भावार्थ:- ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान्‌ तपस्या ही हो। मुनि बोले- हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किस  ......

बालकांड दोहा 79

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चौपाई :दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥भावार्थ:- उन्होंने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होंने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रके  ......

बालकांड दोहा 80

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चौपाई :अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥भावार्थ:- अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जि  ......

बालकांड दोहा 81

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चौपाई :जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥भावार्थ:- हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती, परन्तु अब तो मैं अपना जन्म   ......

बालकांड दोहा 82

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चौपाई :जाइ मुनिन्ह हिमवंतु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥1॥भावार्थ:- मुनियों ने जाकर हिमवान्‌ को पार्वतीजी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिवजी   ......

बालकांड दोहा 83

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चौपाई :मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥भावार्थ:- मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्हों  ......

बालकांड दोहा 84

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चौपाई :तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥1॥भावार्थ:- तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना   ......

बालकांड दोहा 85

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चौपाई :सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाईं। संगम करहिं तलाव तलाईं॥1॥भावार्थ:- सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समु  ......

बालकांड दोहा 86

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चौपाई :उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ॥सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥भावार्थ:- दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-क  ......

बालकांड दोहा 87

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चौपाई :देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1॥भावार्थ:- आम के वृक्ष की एक सुंदर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ़ गया। उसने पुष्प धनुष पर अपने (पाँचों  ......

बालकांड दोहा 88

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चौपाई :जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥भावार्थ:- जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) क  ......

बालकांड दोहा 89

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चौपाई :यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥भावार्थ:- हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के   ......

बालकांड दोहा 90

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चौपाई :सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि संभु रहे सबिकारा॥1॥भावार्थ:-यह सुनकर पार्वतीजी मुस्कुराकर बोलीं- हे विज्ञानी मुनिवरों! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिवजी ने कामदे  ......

बालकांड दोहा 91

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चौपाई :सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना॥1॥भावार्थ:- उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए। फिर मु  ......

बालकांड दोहा 92

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चौपाई :सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥भावार्थ:- शिवजी के गण शिवजी का श्रृंगार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपो  ......

बालकांड दोहा 93

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चौपाई :बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥भावार्थ:- हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर द  ......

बालकांड दोहा 94

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चौपाई :जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥भावार्थ:- जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर ह  ......

बालकांड दोहा 95

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चौपाई :नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥भावार्थ:- बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ़ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नान  ......

बालकांड दोहा 96

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चौपाई :लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥मैनाँ सुभ आरती सँवारी। संग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥भावार्थ:- अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होंने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ क  ......

बालकांड दोहा 97

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चौपाई :नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥भावार्थ:- मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिय  ......

बालकांड दोहा 98

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चौपाई :तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसंगु सुनावा॥मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी॥1॥भावार्थ:- तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षा  ......

बालकांड दोहा 99

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चौपाई :तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे॥नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥भावार्थ:- तब मैना और हिमवान आनंद में मग्न हो गए और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वंदना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा औ  ......

बालकांड दोहा 100

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चौपाई :बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी॥1॥भावार्थ:- सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुंदर श्रेष्  ......

बालकांड दोहा 101

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चौपाई :जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥भावार्थ:- वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर   ......

बालकांड दोहा 102

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चौपाई :बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥1॥भावार्थ:- शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला ल  ......

बालकांड दोहा 103

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चौपाई :तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥भावार्थ:- पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबक  ......

बालकांड दोहा 104

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चौपाई :संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥1॥भावार्थ:- शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बह  ......

बालकांड दोहा 105

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चौपाई :मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥1॥भावार्थ:- मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हार  ......

बालकांड दोहा 106

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चौपाई :हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥1॥भावार्थ:- जो भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नह  ......

बालकांड दोहा 107

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चौपाई :बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सांतरसु जैसें॥पारबती भल अवसरु जानी। गईं संभु पहिं मातु भवानी॥1॥भावार्थ:- कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांतरस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिव  ......

बालकांड दोहा 108

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चौपाई :जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥1॥भावार्थ:- हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आ  ......

बालकांड दोहा 109

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चौपाई :जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥1॥भावार्थ:- यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और हैं, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए। मुझे नादान समझकर मन में क्रो  ......

बालकांड दोहा 110

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चौपाई :जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥गूढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥1॥भावार्थ:- यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ।  ......

बालकांड दोहा 111

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चौपाई :पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥1॥भावार्थ:- हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं औ  ......

बालकांड दोहा 112

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चौपाई :झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥भावार्थ:- जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान ल  ......

बालकांड दोहा 113

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चौपाई :तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥1॥भावार्थ:- फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने का  ......

बालकांड दोहा 114

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चौपाई :रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को क  ......

बालकांड दोहा 115

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चौपाई :अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहिं देखी॥1॥भावार्थ:- जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और भाग्यहीन हैं और जिनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बड़े क  ......

बालकांड दोहा 116

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चौपाई :सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥भावार्थ:- सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अ  ......

बालकांड दोहा 117

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चौपाई :निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥1॥भावार्थ:- अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्री रामचन्द्रजी पर उसका आरोप करते हैं,   ......

बालकांड दोहा 118

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चौपाई :एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥भावार्थ:- इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर क  ......

बालकांड दोहा 119

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चौपाई :कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥1॥भावार्थ:- (हे पार्वती !) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मंत्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त   ......

बालकांड दोहा 120

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चौपाई :ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥1॥भावार्थ:- आपकी चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञान रूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया।   ......

बालकांड दोहा 121

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चौपाई :सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥1॥भावार्थ:- हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने श्री हरि के सुंदर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस   ......

बालकांड दोहा 122

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चौपाई :सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥1॥भावार्थ:- उसी यश को गा-गाकर भक्तजन भवसागर से तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। श्री रामचन्  ......

बालकांड दोहा 123

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चौपाई :मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥1॥भावार्थ:- भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन (शाप) का प्  ......

बालकांड दोहा 124

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चौपाई :तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥1॥भावार्थ:- लीलाओं के भंडार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलन्धर उस कल्प में रावण हुआ, जि  ......

बालकांड दोहा 125

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चौपाई :हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥1॥भावार्थ:- हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगाजी बहती थीं। वह परम पवित्र सुंदर आश्रम देखने पर   ......

बालकांड दोहा 126

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चौपाई :तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥1॥भावार्थ:- जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसन्त ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रंग-ब  ......

बालकांड दोहा 127

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चौपाई :भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥1॥भावार्थ:- नारदजी के मन में कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेव का समाधान किया। तब मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उन  ......

बालकांड दोहा 128

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चौपाई :राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्री शिवजी के वचन नारदजी के म  ......

बालकांड दोहा 129

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चौपाई :सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥1॥भावार्थ:- हे मुनि! सुनिए, मोह तो उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रत   ......

बालकांड दोहा 130

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चौपाई :बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥1॥भावार्थ:- उस नगर में ऐसे सुंदर नर-नारी बसते थे, मानो बहुत से कामदेव और (उसकी स्त्री) रति ही मनुष्य शरीर धारण किए हुए हों। उस  ......

बालकांड दोहा 131

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चौपाई :देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगि रहे निहारी॥लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥1॥भावार्थ:- उसके रूप को देखकर मुनि वैराग्य भूल गए और बड़ी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गए। उसके लक्षण देखकर मुनि अपने आपको   ......

बालकांड दोहा 132

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चौपाई :हरि सन मागौं सुंदरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥1॥भावार्थ:- (एक काम करूँ कि) भगवान से सुंदरता माँगूँ, पर भाई! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जाएगी, किन्तु श्री हरि के समान मेरा हित  ......

बालकांड दोहा 133

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चौपाई :कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ॥1॥भावार्थ:- हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हा  ......

बालकांड दोहा 134

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चौपाई :जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥1॥भावार्थ:- नारदजी अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस समाज (पंक्ति) में जाकर बैठे थे, ये शिवजी के दोनों गण भी वहीं बैठ गए। ब्र  ......

बालकांड दोहा 135

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चौपाई :जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥1॥भावार्थ:- जिस ओर नारदजी (रूप के गर्व में) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार-बार उचकते और   ......

बालकांड दोहा 136

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चौपाई :पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा॥फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥1॥भावार्थ:- मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके होठ फड़क रहे थे और मन   ......

बालकांड दोहा 137

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चौपाई :परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥1॥भावार्थ:- तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छन्दता से) वही करते हो। भले को बुरा और   ......

बालकांड दोहा 138

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चौपाई :जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥1॥भावार्थ:- जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यन्त भयभीत होकर श्र  ......

बालकांड दोहा 139

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चौपाई :हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिसेषी॥अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुहाए॥1॥भावार्थ:- शिवजी के गणों ने जब मुनि को मोहरहित और मन में बहुत प्रसन्न होकर मार्ग में जाते हुए देखा तब वे अत्यन्त भयभीत होकर नारदजी क  ......

बालकांड दोहा 140

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चौपाई :एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे॥कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार भगवान के अनेक सुंदर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक कल्प में जब-जब भगवान अवतार ल  ......

बालकांड दोहा 141

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चौपाई :अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥1॥भावार्थ:- हे गिरिराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो- मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ- जिस कार  ......

बालकांड दोहा 142

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चौपाई :स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥दंपति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥1॥भावार्थ:- स्वायम्भुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म औ  ......

बालकांड दोहा 143

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चौपाई :बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥1॥भावार्थ:- तब मनुजी ने अपने पुत्र को जबर्दस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया। अत्यन्त पवित्र और साधकों को सि  ......

बालकांड दोहा 144

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चौपाई :करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1॥भावार्थ:- वे साग, फल और कन्द का आहार करते थे और सच्चिदानंद ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्री हरि के लिए तप करने लगे औ  ......

बालकांड दोहा 145

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चौपाई :बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥भावार्थ:- दस हजार वर्ष तक उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई ब  ......

बालकांड दोहा 146

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चौपाई :सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥1॥भावार्थ:- हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी भी वंदना करते ह  ......

बालकांड दोहा 147

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चौपाई :सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥1॥भावार्थ:- उनका मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा के समान छबि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुंदर थे, गला शंख के समान (त्रि  ......

बालकांड दोहा 148

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चौपाई :पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥1॥भावार्थ:- जिनमें मुनियों के मन रूपी भौंरे बसते हैं, भगवान के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान के ब  ......

बालकांड दोहा 149

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चौपाई :सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥1॥भावार्थ:- प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही- हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी स  ......

बालकांड दोहा 150

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चौपाई :देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥1॥भावार्थ:- राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले- ऐसा ही हो। हे राजन्‌! मैं अपने समान (दूसरा) कहा  ......

बालकांड दोहा 151

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चौपाई :सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥1॥भावार्थ:- (रानी की) कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्य रचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान कोमल वचन बोले- तुम्हारे मन   ......

बालकांड दोहा 152

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चौपाई :इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥1॥भावार्थ:- इच्छानिर्मित मनुष्य रूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात! मैं अपने अंशों सहित देह धारण करके भक्त  ......

बालकांड दोहा 153

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चौपाई :सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥1॥भावार्थ:- हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वह  ......

बालकांड दोहा 154

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चौपाई :नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥1॥भावार्थ:- राजा का हित करने वाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था। इस प्रकार बुद्धिमान मंत्री औ  ......

बालकांड दोहा 155

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चौपाई :भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥1॥भावार्थ:- राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःख  ......

बालकांड दोहा 156

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चौपाई :हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥भावार्थ:- (राजा के) हृदय में किसी फल की टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से   ......

बालकांड दोहा 157

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चौपाई :आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥1॥भावार्थ:- अधिक शब्द करते हुए घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर   ......

बालकांड दोहा 158

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चौपाई :फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥1॥भावार्थ:- वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने   ......

बालकांड दोहा 159

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चौपाई :गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥1॥भावार्थ:- सारी थकावट मिट गई, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठ  ......

बालकांड दोहा 160

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चौपाई :भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहु  ......

बालकांड दोहा 161

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चौपाई :कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥1॥भावार्थ:- राजा ने कहा- जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं  ......

बालकांड दोहा 162

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चौपाई :तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥1॥भावार्थ:- (कपट-तपस्वी ने कहा-) इसी से मैं जगत में छिपकर रहता हूँ। श्री हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखत  ......

बालकांड दोहा 163

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चौपाई :जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥1॥भावार्थ:- हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से   ......

बालकांड दोहा 164

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चौपाई :नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥1॥भावार्थ:- तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन्‌! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपन  ......

बालकांड दोहा 165

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चौपाई :कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥1॥भावार्थ:- तपस्वी ने कहा- हे राजन्‌! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम  ......

बालकांड दोहा 166

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चौपाई :तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥1॥भावार्थ:- हे राजन्‌! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही   ......

बालकांड दोहा 167

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चौपाई :सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई॥1॥भावार्थ:- (तपस्वी ने कहा-) हे राजन्‌ !सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं, पर वे कष्ट साध्य हैं (बड़ी कठिनता से बनने में आते हैं  ......

बालकांड दोहा 168

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चौपाई :जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥1॥भावार्थ:- राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला- हे राजन्‌! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर  ......

बालकांड दोहा 169

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चौपाई :एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥करिहहिं बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥1॥भावार्थ:- हे राजन्‌! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, य  ......

बालकांड दोहा 170

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चौपाई :सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥भावार्थ:- राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, (उसे) खूब (गहरी) नींद आ गई। पर वह कपटी कैसे सोत  ......

बालकांड दोहा 171

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चौपाई :तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥1॥भावार्थ:- तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनाई, तब राक्षस आनंदित ह  ......

बालकांड दोहा 172

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चौपाई :आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥1॥भावार्थ:- वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश  ......

बालकांड दोहा 173

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चौपाई :उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥1॥भावार्थ:- पुरोहित ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यं  ......

बालकांड दोहा 174

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चौपाई :छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥1॥भावार्थ:- रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अ  ......

बालकांड दोहा 175

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चौपाई :अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किए जेहीं॥1॥भावार्थ:-ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे चिन्ता करने और विधाता को दोष देने लगे, जिसने हंस ब  ......

बालकांड दोहा 176

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चौपाई:काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥1॥भावार्थ:- हे मुनि! सुनो, समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं और वह बड़ा ही प्रचण्ड   ......

बालकांड दोहा 177

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चौपाई :कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥1॥भावार्थ:- तीनों भाइयों ने अनेकों प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं हो सकता। (उनका उग्र) तप देखकर ब्रह्  ......

बालकांड दोहा 178

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चौपाई :तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥1॥भावार्थ:- उनको वर देकर ब्रह्माजी चले गए और वे (तीनों भाई) हर्षित हेकर अपने घर लौट आए। मय दानव की मंदोदरी नाम की कन्या परम सुंदरी  ......

बालकांड दोहा 179

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चौपाई :रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥1॥भावार्थ:- (पहले) वहाँ बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्द में मार डाला। अब इंद्र की प्रेरणा से वहाँ क  ......

बालकांड दोहा 180

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चौपाई :सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥1॥भावार्थ:- सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय, प्रताप, बल, बुद्धि और बड़ाई- ये सब उसके नित्य नए (वैसे ही) बढ़ते जाते थे, जैसे प्रत्ये  ......

बालकांड दोहा 181

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चौपाई :कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥1॥भावार्थ:- सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके दया-धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठ  ......

बालकांड दोहा 182

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चौपाई :मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढ़ावा॥जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥भावार्थ:- फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढ़ाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को उत्तेजना दी। (फिर कहा-) हे पुत  ......

बालकांड दोहा 183

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चौपाई :इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥1॥भावार्थ:- मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात्‌ रावण के कहने भर  ......

बालकांड दोहा 184

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चौपाई :बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥भावार्थ:- पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और   ......

बालकांड दोहा 185

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चौपाई :बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥भावार्थ:- सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुंठपुरी जान  ......

बालकांड दोहा 186

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छन्द :जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता॥पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥भावार्थ:- हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देन  ......

बालकांड दोहा 187

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चौपाई :जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥1॥भावार्थ:- हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र)  ......

बालकांड दोहा 188

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चौपाई :गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा॥1॥भावार्थ:- सब देवता अपने-अपने लोक को गए। पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली। ब्रह्माजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहु  ......

बालकांड दोहा 189

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चौपाई :एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥भावार्थ:- एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत   ......

बालकांड दोहा 190

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चौपाई :तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥1॥भावार्थ:- उसी समय राजा ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया। कौसल्या आदि सब (रानियाँ) वहाँ चली आईं। राजा ने (पायस का) आधा भा  ......

बालकांड दोहा 191

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चौपाई :नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥1॥भावार्थ:- पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित्‌ मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बह  ......

बालकांड दोहा 192

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छन्द :भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥भावार्थ:- दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हि  ......

बालकांड दोहा 193

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चौपाई :सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चलि आईं सब रानी॥हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥भावार्थ:-बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ   ......

बालकांड दोहा 194

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चौपाई :ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई॥1॥भावार्थ:- ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की व  ......

बालकांड दोहा 195

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चौपाई :कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ॥वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥भावार्थ:-कैकेयी और सुमित्रा- इन दोनों ने भी सुंदर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों क  ......

बालकांड दोहा 196

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चौपाई :यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥1॥भावार्थ:- यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी का) गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और न  ......

बालकांड दोहा 197

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चौपाई :कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥भावार्थ:-इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्र  ......

बालकांड दोहा 198

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चौपाई :धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥भावार्थ:- गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्‌! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात्‌ परा  ......

बालकांड दोहा 199

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चौपाई :काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा॥नअरुन चरन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥भावार्थ:- उनके नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों   ......

बालकांड दोहा 200

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चौपाई :एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥भावार्थ:- इस प्रकार (सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं, जिन्होंने श्री राम  ......

बालकांड दोहा 201

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चौपाई :एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए॥निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1॥भावार्थ:- एक बार माता ने श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की  ......

बालकांड दोहा 202

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चौपाई :अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥भावार्थ:- अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव द  ......

बालकांड दोहा 203

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चौपाई :बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनंद दासन्ह कहँ दीन्हा॥कछुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई॥1॥भावार्थ:- भगवान ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनंद दिया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बड़े होकर क  ......

बालकांड दोहा 204

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चौपाई :बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए॥जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी की बहुत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किय  ......

बालकांड दोहा 205

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चौपाई :बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं।   ......

बालकांड दोहा 206

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चौपाई :यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥भावार्थ:- यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश  ......

बालकांड दोहा 207

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चौपाई :मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥भावार्थ:- राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत्‌ करके मुनि का सम्मान करते हुए उ  ......

बालकांड दोहा 208

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चौपाई :सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥भावार्थ:- इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कांति फीकी पड़ गई। (उन्होंने कहा-) हे ब  ......

बालकांड दोहा 209

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चौपाई :अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥भावार्थ:- भगवान के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम  ......

बालकांड दोहा 210

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चौपाई :प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥1॥भावार्थ:- सबेरे श्री रघुनाथजी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे। आप (श्री रामजी) यज  ......

बालकांड दोहा 211

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छन्द :परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥भावार्थ:- श्री रामजी के पवित्र और शोक क  ......

बालकांड दोहा 212

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चौपाई :चले राम लछिमन मुनि संगा। गए जहाँ जग पावनि गंगा॥गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥भावार्थ:- श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र व  ......

बालकांड दोहा 213

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चौपाई :बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥भावार्थ:- नगर की सुंदरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुंदर बाजार है, मणियों से ब  ......

बालकांड दोहा 214

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चौपाई :सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रख संकुल सब काला॥1॥भावार्थ:- राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा हीरों के चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, न  ......

बालकांड दोहा 215

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चौपाई :कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥बिप्रबृंद सब सादर बंदे। जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥1॥भावार्थ:- राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वा  ......

बालकांड दोहा 216

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चौपाई :कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥भावार्थ:- हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुंदर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ कह  ......

बालकांड दोहा 217

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चौपाई :मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥भावार्थ:- राजा ने कहा- हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता। ये सुंदर श्याम और गौर वर्ण के दोन  ......

बालकांड दोहा 218

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चौपाई :लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1॥भावार्थ:- लक्ष्मणजी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें, परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और  ......

बालकांड दोहा 219

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चौपाई :मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥बालक बृंद देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥1॥भावार्थ:- सब लोकों के नेत्रों को सुख देने वाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वंदना करके चले। बालकों के झुंड इन (के सौंदर्य) की   ......

बालकांड दोहा 220

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चौपाई :देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥1॥भावार्थ:- जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मा  ......

बालकांड दोहा 221

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चौपाई :कहहु सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥1॥भावार्थ:- हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस रूप को देखकर मोहित न हो जाए (अर्थात यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करने   ......

बालकांड दोहा 222

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चौपाई :देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी- यह वर जानकी के योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें दे  ......

बालकांड दोहा 223

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चौपाई :बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥भावार्थ:- दूसरी ने कहा- हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाह से सभी का परम हित है। किसी ने कहा- शंकरजी का धनुष कठोर है और ये स  ......

बालकांड दोहा 224

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चौपाई :पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥भावार्थ:- दोनों भाई नगर के पूरब ओर गए, जहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रंग) भूमि बनाई गई थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुंदर ढाला हुआ पक्का आँगन   ......

बालकांड दोहा 225

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चौपाई :सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥1॥भावार्थ:- श्री रामचन्द्रजी ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर (यज्ञभूमि के) स्थानों की प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। (इससे बा  ......

बालकांड दोहा 226

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चौपाई :निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा॥कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥भावार्थ:- रात्रि का प्रवेश होते ही (संध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने संध्यावंदन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा   ......

बालकांड दोहा 227

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चौपाई :सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥भावार्थ:- सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाए। फिर (संध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया। (पू  ......

बालकांड दोहा 228

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चौपाई :चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥1॥भावार्थ:- चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्र-पुष्प लेने लगे। उसी समय सीताजी वहाँ आईं। माता ने उ  ......

बालकांड दोहा 229

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चौपाई :देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥भावार्थ:- (उसने कहा-) दो राजकुमार बाग देखने आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर हैं। वे साँवले और गोरे (रंग के) ह  ......

बालकांड दोहा 230

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चौपाई :कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥भावार्थ:- कंकण (हाथों के कड़े), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहत  ......

बालकांड दोहा 231

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चौपाई :तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥भावार्थ:- हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवाड़ी में प्रक  ......

बालकांड दोहा 232

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चौपाई :चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥1॥भावार्थ:- सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बात की चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ चले गए। बाल मृगनयनी  ......

बालकांड दोहा 233

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चौपाई :सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥1॥भावार्थ:- दोनों सुंदर भाई शोभा की सीमा हैं। उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल की सी है। सिर पर सुंदर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच  ......

बालकांड दोहा 234

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चौपाई :धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥भावार्थ:- एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेत  ......

बालकांड दोहा 235

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चौपाई :जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥भावार्थ:- शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं।   ......

बालकांड दोहा 236

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चौपाई :सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥भावार्थ:- हे (भक्तों को मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ   ......

बालकांड दोहा 237

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चौपाई :हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥भावार्थ:- हृदय में सीताजी के सौंदर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए। श्री रामचन्द्रजी ने विश्वामित्र से सब कुछ क  ......

बालकांड दोहा 238

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चौपाई :घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥कोक सोक